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® आचार्य ®
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गुरु-अदत्त है । मुनि को यह चारों प्रकार का अदत्त त्यागना चाहिए, तभी वह अदत्तादानविरमणव्रती कहला सकता है ।
(४) चौथा महाव्रत- 'सव्वाश्रो मेहुणाओ विरमणं' अर्थात् साधु मानुषी, तिरश्ची (तिर्यश्च-स्त्री) और देवी के साथ तथा साध्वी, मनुष्य, तिर्यञ्च और देव के साथ, तीन करण, तीन योग से मैथुनसेवन का त्याग करे। इस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्यमहाव्रत कहलाता है।
चौथे महाव्रत की पाँच भावनाएँ:-(१) स्त्री के हावभाव, विलास और श्रृंगार की कथा न करना (२) स्त्री के गुप्त अंगोपांगों को विकार-दृष्टि से न देखना (३) गृहस्थाश्रम में भोगे हुए काम-भोगों का स्मरण न करना (४) मर्यादा से अधिक तथा कामोत्तेजक-सरस आहार सदैव न भोगना (५) जिस मकान में स्त्री, पशु या पंडक (नपुंसक) रहते हों, उसमें न रहना ।
स्त्री, पशु और पंडक-इन तीन का नौ कोटि से गुणा करने पर ६४३=२७ भांगे और २७ को दिन, रात आदि ६ से गुणा करने पर २७४६=१६२ भंग चौथे महाव्रत के होते हैं । दशवैकालिकसूत्र (अध्ययन छठा, गाथा १७ ) में कहा है :
मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं।
तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं । अर्थात्-मैथुन का सेवन घोर अधर्म का मूल, नौ लाख संज्ञी मनुष्यों और असंख्यात असंज्ञी जीवों की घात रूप महादोष का स्थान है। इसके सेवन से पाँचों महाव्रतों का भंग हो जाता है । ऐसा समझ कर निर्ग्रन्थ मुनि मैथुन का सर्वथा त्याग कर देते हैं। .
(५) पाँचवाँ महाव्रत-सव्वाश्रो परिग्गहारो वेरमणं अर्थात् सब परिग्रह का (१) अल्प (२) बहुत (३) छोटा (४) बड़ा (५) सचित्त और (६) अचित्त का तीन करण तीन योग से त्याग करना* पाँचवाँ परिग्रह विरमण व्रत कहलाता है।
* जे पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पाययपुछणं। तं पि संजम-लज्जट्ठा, धारंति परिहरंति य॥