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* आचार्य
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इस प्रकार छतीस का छह से गुणा करने पर २१६ भंग पहले महाव्रत के होते हैं । कोई-कोई (१) पृथ्वी (२) पानी (३) अग्नि (४) वायु (५) वनस्पति (६) द्वीन्द्रिय (७) त्रीन्द्रिय (८) चौइन्द्रिय (8) पंचेन्द्रिय, इन नौ का कोटि से गुणाकार करके ८१ भंग कहते हैं और इस ८१ संख्या में दिन रात आदि पूर्वोक्त का गुणाकार करके ४८८ भंग कहते हैं ।
(२) दूसरा महाव्रत - ' सव्वा मुसावायाओ वेरमण' अर्थात् क्रोध, लोभ, भय अथवा हास्य आदि के वश में हो कर, तीन करण तीन योग से, किसी भी प्रकार झूठ न बोलना दूसरा महाव्रत मृषावादविरमण कहलाता है ।
दूसरे महाव्रत की पाँच भावनाएँ - (१) ऐसे निर्दोष, मधुर, सत्य, पथ्य वचन बोलना जिससे किसी की घात न हो, किसी को दुःख न हो, बुरा न लगे, सो 'अनुवचिभाषण' भावना है । (२) क्रोध के वश में झूठ बोला जाता है, अतः जब क्रोध का आवेश हो तो भाषण न करना - क्षमा और मौन रखना 'कोहं परिजाइ' भावना है, [३] लोभ के वश में झूठ बोला जाता है, इसलिए जब लोभ का उदय हो तो बोलना नहीं— सन्तोष धारण करना 'लोहपरिजाइ' भावना है । [४] भय के कारण अवश्य झूठ बोला जाता है, अतः भय का उद्रेक होने पर बोलना नहीं, धैर्य धारण करना सो 'भयं परजाइ' भावना है। [५] हास्य-विनोद में झूठ बोला जाता है, अतः हास्य का उदय होने पर बोलना नहीं— मौन धारण करना सो 'हासं परिजागड' भावना है । तात्पर्य यह है कि निर्दोष वचन बोलना और क्रोध, लोभ, भय या हास्य के वशवर्ती हो कर न बोलना चाहिए । क्रोध आदि चार का नौ कोटि से गुणाकार करने पर EX४ = ३६ भंग दूसरे महाव्रत के भी होते हैं । पूर्वोक्त दिन रात श्रादि छह के साथ गुणा करने से ३६६ = २१६ भंग हो जाते हैं । (३) तीसरा महाव्रत ---- -- 'सव्वा अदिन्नादाणा वेरमणं' अर्थात् सब प्रकार के अदत्तादान से निवृत्त होना । तात्पर्य यह है कि ग्राम, नगर या जंगल में [१] अल्प -- थोड़ी या थोड़े मूल्य की वस्तु [२] बहु बहुत और बहुत मूल्य की वस्तु [३] अणु - छोटी वस्तु [४] स्थूल-बड़ी वस्तु [५] मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सजीव सचित्त वस्तु और [६] वस्त्र, पात्र,