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* जैन-तख प्रकाश
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पहले महाव्रत के ३६ भंग:चार प्राणों तक को धारण करने वाले सभी जीव सामान्य रूप से प्राणी कहलाते हैं, किन्तु यहाँ प्राणों से ही जिनकी पहचान हो ऐसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों को 'प्राणी' शब्द से गिना गया है । भूत, भविष्य और वर्त्तमान काल में जीवत्व की पेक्षा एक-सा ही रहने के कारण साधारणतया सभी जीव, भूत कहलाते हैं, किन्तु यहाँ भूत के समान वृद्धि पाने वाली तथा एक ही स्थान पर रहने वाली वनस्पति के जीवों को ही 'भूत' कहा है। जो कभी शून्य रूप न होंसर्वथा मरें नहीं, छिदें- भिदें- गलें नहीं, सदैव जीवित रहें, ऐसे सभी जीव सामान्य रूप से जीव कहलाते हैं, किन्तु यहाँ पाँच इन्द्रियों के धारक को ही सर्वसाधारण लोग जीव मानते हैं । उनका धर्मशाला, पींजरापोल और अस्पताल आदि द्वारा रक्षण करते हैं । अतः व्यावहारिक दृष्टि से पंचेन्द्रिय प्राणियों को ही जीव गिना है । जगत् के सभी प्राणियों में सच्च सत्ता अस्तिस्व पाया जाता है, अतः सभी जीव 'सच' हैं, किन्तु यहाँ पृथ्वी आधारभूत, पानी जीवनभूत, अग्नि पाचन आदि में उपयोगी और वायु श्वासोच्छ्वास प्राण रूप होने से तथा भूतवादी चार्वाक यदि इन्हें तव मानते हैं, इस कारण इन चारों को ही 'सत्त्व' कहा गया है । इस प्रकार (१) प्राण (२) भूत (३) जीव और (४) सत्र की हिंसा नौ कोटि से न करना सो ६x४ = ३६ हो जाते हैं । कोई-कोई सूक्ष्म, + बादर, X त्रस और स्थावर इन चारों प्रकार के जीवों की कोटि से हिंसा न करने के कारण ३६ भंग मानते हैं ।
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पूर्वोक्त ३६ प्रकार की हिंसा (१) दिनमें (२) रात्रि में (३) अकेले में (४) समूह में (५) सोते समय और (६) जागते समय नहीं करनी चाहिए ।
* चार्वाक (नास्तिक) मतावलंबियों का कथन है कि पृथ्वी आदि भूतों के संमिश्रण से चेतना की उत्पत्ति हो जाती है। आत्मा का अस्तित्व नहीं है । परलोक और पुण्य-पाप भी नहीं हैं।
मारने से
+ जो आँख से दिखाई न दें, वज्रमय भीत में से भी निकल जाएँ और किसी के नहीं, अपनी आयु पूर्ण होने पर ही मरें, वे जीव सूक्ष्म कहलाते हैं । ऐसे जीव सम्पूर्ण लोक में ठसाठस भरे हैं ।
x जो दिखाई से सकें, मारने से मर सकें वे जीव बादर कहलाते हैं । द्वीन्द्रिय यदि सजीव तथा पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर जीव कहलाते हैं ।
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