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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ॐ
आचार्य के ३६ गुण
पंचिंदियसंवरणो, तह नवविहबंभचेरगुत्तिधरो । चउविहकसाय-मुक्को, इह अट्ठारसगुणेहिं संजुचो ॥१॥ पंचमहव्ययजुत्तो, पंचविहायारपालण-समत्थो ।
पंचसमिश्रो तिगुत्तो, इइ छत्तीसगुणेहिं गुरू मज्झं ॥२॥ अर्थात्-पाँच इद्रियों का संवर करना, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्तियों (वाड़ों) को धारण करना, चार कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) का त्याग करना, पाँच महाव्रतों से युक्त होना, पाँच प्रकार के प्राचार का पालन करने में समर्थ होना, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त होना, यह ३६ गुण जिसमें पाये जाते हैं, वह आचार्य कहलाते हैं ।
पाँच महाव्रत
(१) पहला महाव्रत-'सव्वाश्रो पाणाइवायाओ वेरमणं' अर्थात् सब प्रकार के प्राणातिपात से निवृत्त होना । तात्पर्य यह है कि तीन करण, तीन योग से, त्रस और स्थावर-किसी भी प्राणी की हिंसा न करना पहला महाव्रत है।
प्राण धारण करने वाले को प्राणी कहते हैं। प्राण दस प्रकार के हैं। यथा-(१) श्रोत्रेन्द्रियबलमाण (२) चक्षुरिन्द्रियबलप्राण (३) घ्राणेन्द्रियबलप्राण (नाक), (४) रसेन्द्रियबलप्राण (जीभ) (५) स्पर्शेन्द्रियबलप्राण (त्वचा) (६) मनबलप्राण (9) वचनबलप्राण (८) कायबलप्राण (8) श्वासोच्छ्वासबल. प्राण और (१०) आयुबलप्राण । केवल स्पर्शेन्द्रिय को धारण करने वाले मृत्तिका, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के पाँच प्रकार के जीव स्थावर जीव कहलाते हैं। स्थावर जीवों में चार प्राण पाये जाते हैं(१) स्पर्शेन्द्रिय (२) कायबलप्राण (३) श्वासोच्छवास और (४) आयु ।