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"संजयाणं च भावओ'
इस ग्रंथ की आदि में 'सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं च भावओ' यह गाथा उद्धृत की गई थी। इस गाथा के प्रथम चरण का विवेचन प्रथम और द्वितीय प्रकरण में किया गया है। यहाँ तीसरे प्रकरण में गाथा के दूसरे चरण का विशद रूप से विवेचन किया जायगा ।
'यति' शब्द 'यम् साधु से बना है, जिसका अर्थ है-काबू में करना (To restrain) 'सम्' उपसर्ग है । इस प्रकार 'संयति' का अर्थ है- स्वेच्छा से अपनी आत्मा को जीतने वाला-पापाचरण से रोकने वाला।
विना इच्छा के, पराधीन होकर अपनी आत्मा पर जो काबू करता है, वह संयति या संयत नहीं कहलाता । पराधीन होकर आत्मा ने अनन्त बार नरक आदि गतियों में जा-जाकर अपने पर काबू किया, मयर उससे कोई लाभ नहीं हुआ । उदाहरणार्थ-(१) नरक के प्रत्येक भव में जघन्य १०००० वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम पर्यन्त अनन्त क्षुधा, अनन्त शीत ताप, रोग, शोक, मार-ताड़न आदि दुःख सहे हैं । (२) तिर्यञ्च मति में पराधीन हो कर वनवास में, तथा निर्दय जनों के वश में पड़ कर, असीम नरक के समान दुःख सहने पड़ते हैं। (३) मनुष्य पर्याय में दरिद्रता, रोग, कारागार, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के दुःख पराधीन होकर भोगने पड़ते हैं । (४) देवभव में भी अनेक दुःख हैं। अगर कोई आभियोग्य देव हो जाता है तो उसे नृत्य-गान आदि करके दूसरे देवों को प्रसन्न करना