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आहार, स्थान आदि निर्जीव तीन करण और तीन योग से कहलाता है ।
विरमण
जैन तत्त्व प्रकाश
चित्त वस्तु, स्वामी के द्वारा दिये बिना ग्रहण न करना चाहिए । यही अदत्तादान
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तीसरे महाव्रत की पाँच भावनाएँ: – (१) निर्दोष स्थानक (मकान) उसके स्वामी या अधिकृत नौकर आदि की आज्ञा से ग्रहण करना 'मिउग्गहंजाती' भावना है । (२) गुरु आदि ज्येष्ठ (बड़े मुनि) की आज्ञा के विना आहार - वस्त्र आदि का उपभोग न करना 'अणुवियपाणभोयण' भावना है । (३) सदैव द्रव्य, क्षेत्र, काल की मर्यादा के अनुसार गृहस्थ की आज्ञा लेना ' उग्गहंसिउग्गाहिंसंति' भावना है ( ४ ) सचित्त ( शिष्य आदि), श्रचित्त (तृण आदि), मिश्र ( उपकरण सहित शिष्य आदि) को ग्रहण करने के लिए वारंवार आज्ञा लेना और मर्यादा के अनुसार उन्हें ग्रहण करना उग्गहं वा उग्गहंसि भिक्खणं भावना है । (५) एक साथ रहने वाले साधर्मी (संभोगी) साधुओं के वस्त्र पात्र आदि उनकी आज्ञा लेकर ग्रहण करना 'अणुविय मिउग्गहंजाती' भावना है । तथा गुरु, बृद्ध, रोगी, तपस्वी, ज्ञानी और नवदीक्षित मुनि की वैयावृत्य (सेवा) करे पूर्वोक्त अल्प, बहु, छोटी, मोटी, सचित्त और अचित्त -- इन छह का नौ ( कोटि ) से गुणाकार करने पर ६×६=५४ भंग होते हैं । इस ५४ की संख्या का दिन रात आदि ६ से गुणा करने पर ५४x६ = ३२४ भंग तीसरे महाव्रत के होते हैं ।
और भी त के चार भेद कहे हैं: -- [१] किसी वस्तु को मा मकान को उसके मालिक की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्वामी श्रदत्त है [२] कोई भी जीव अपने प्राणों को हरण करने की आज्ञा नहीं देता । अतः किसी जीव के प्राण हरण करना जीव श्रदत्त है [३] तीर्थङ्कर भगवान् ने शास्त्र में साधु के वेष का तथा आचार आदि का कथन किया है । उस कथन का उल्लंघन करके वेष धारण करना अथवा आचार की स्थापना करना तीर्थङ्कर श्रदत्त है [४] गुरु आदि ज्येष्ठों की आज्ञा भंग करना
* वन आदि निर्जन स्थान में, जब कोई आज्ञा देने वाला न हो तो निर्भ्रमी वस्तु शकेन्द्रजी की आज्ञा लेकर ग्रहण कर सकते हैं ।