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® जैन-तत्त्व प्रकाश
पाँचवें महाव्रत की पाँच भावनाएँ:-(१) शब्द (२) रूप (३) गंध (४) रस और (५) स्पर्श; यह पाँचों मनोज्ञ प्राप्त हों तोराग न करना, प्रसन्न न होना और अमनोज्ञ प्राप्त हों तो द्वेष न करना, नाराज न होना यही पाँच भावनाएँ हैं।
पूर्वोक्त अल्प, बहुत, छोटा, बड़ा, सचित्त और अचित्त, इन छहों को 8 कोटि से गुणा करने पर ६४६-४४ भङ्ग होते हैं और ५४ को दिन, रात, अकेले, समूह, सोते और जागते, इन छहों से गुणाकार करने पर ५४४६-३२४ भंग पाँचवें महाव्रत के होते हैं।
पंचाचार
[१] ज्ञानाचार-ज्ञान शब्द 'ज्ञ' धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है जानना । किसी भी इष्ट पदार्थ की प्राप्ति करने के लिए सबसे पहले उपाय जानना आवश्यक होता है। अतएव ज्ञान आराधनीय-आचरणीय वस्तु है। ज्ञान की स्वयं आराधना करने वाले अर्थात् ज्ञानसम्पन्न प्राचार्य होते हैं। वे दूसरों को भी ज्ञानी बनाने का प्रयास करते हैं। तीर्थङ्कर द्वारा उपदिष्ट और गणधरों द्वारा रचित द्वादशांगी रूप शास्त्रों को आचार्य महाराज आठ दोषों से रहित पठन करते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं।
ज्ञान के आठ आचार
गाथा-काले विणये बहुमाणे, उवहाणे तह यऽणिएहवणे ।
वंजण-अत्थ-तदुभैये, अट्ठविहो णाणमायारो ॥ अर्थात्-ज्ञान के आठ आचार इस प्रकार हैं:
न सो परिगहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । ___ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥ -दश० १०६
अर्थः-श्री महावीर स्वामी ने कहा है कि-संयम का पालन करने और लज्जा की रक्षा करने के लिए साधु जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि रखते हैं, वह परिग्रह रूप नहीं है। वह धर्मोपकरण हैं। अगर कोई उन वस्त्र-पात्र आदि पर ममत्व रखे तो वह परिग्रह ही है। उपधि का तो कहना ही क्या है, ममत्व रखने से शरीर भी परिग्रह है।