________________
१५४ ]
* जैन-तत्त्व प्रकाश
[३] एषणासमिति — शय्या ( स्थानक), आहार, वस्त्र और पात्र निर्दोष ग्रहण करे । इस के चार भेदः -- [१] द्रव्य से - ४२ तथा ६६ दोषों +
* ६६ दोष इस प्रकार हैं: - (१) श्रधाकर्म - साधारण रूप से किसी भी साधु के निमित्त आहार बनाकर देना । (२) औद्द शिक - अमुक साधु के निमित्त आहार बना कर देना (३) पुरः कर्म - साधु और गृहस्थ दोनों के निमित्त अलग-अलग आहार बनाया हो लेकिन साधु के निमित्त आहार में से एक भी दाना गृहस्थ के निमित्त बने आहार में मिल जाय, और फिर उस मिले चाहार को देना । (४) मिश्रजात - साधु और गृहस्थ के निमित्त शामिल बनाया हुआ आहार देना । (५) स्थापना - साधु के निमित्त ही रख छोड़ा हुआ आहार देना (६) प्राभृत-कल साधुजी गोचरी के लिए आएँगे तो कल ही मेहमानों को जिमाऊँगा, इस प्रकार सोचकर बनाया हुआ आहार देना । (७) प्रादुष्करण - दीपक आदि से अंधेरे में प्रकाश करके देना । (८) क्रीतकृत - साधु के निमित्त मोल देकर खरीद कर आहार देना । (६) प्रामित्य - साधु के निमित्त उधार लाकर देना । (१०) परिवर्तना - साधु के निमित्त दूसरे से अदल-बदल कर देना । (११) अभ्याहृतस्थानक में अथवा रास्ते में साधु के पास लाकर आहार देना । (१२) भिन्न-मिट्टी, लाख, चपड़ी आदि से बर्त्तन का मुँह बंद हो और साधु के निमित्त खोल कर देना । (१३) मालाहत - ऊपर से नीचे उतारकर देना । (१४) अच्छिद्य - निर्बल से छीन कर देना । (१५) निसृष्ट-मालिक या हिस्सेदार की अनुमति लिये बिना देना । (१६) अध्यक्पूरसाधु का श्रागमन सुनकर अपने लिए भोजन पकाते समय कुछ अधिक पकाकर देना । पह १६ उद्गम दोष कहलाते हैं । यह दोष श्रावक के द्वारा लगते हैं । साधु ऐसे आहार को कर्मबंध का कारण समझ कर कहे कि - हे श्रायुष्मन् ! मुझे ऐसा आहार नहीं कल्पता और ऐसे आहार को ग्रहण न करे ।
(१७) धात्री कर्म - गृहस्थ के बालक को धाय की तरह खिलाकर रमाकर आहार लेना । (१८) दूतीकर्म - एक ग्राम से दूसरे ग्राम में अथवा एक घर से दूसरे घर में समाचार (संदेश) पहुँचा कर आहार लेना । (१६) निमित्तदोष-भूत, भविष्य की बात सुनाकर, स्वम, सामुद्रिक, व्यंजन ( तिल, मसा आदि) का फल बतलाकर आहार लेना । (२०) आजीविकागृहस्थ को अपना सगा-संबंधी बनाकर या बताकर आहार लेना (२५) वनीपक- भिखारी की भाँति दीनता दिखा कर आहार लेना (२२) चिकित्सा - औषधोपचार बतला कर महार लेना (२३) क्रोध - क्रोध करके - लड़-झगड़ कर आहार लेना (२४) मान — श्रमिमान करके आहार लेना (२५) माया - दगाबाजी करके लेना (२६) लोभ-लालच करके लेना (२७) पूर्व - पश्चात्संस्तव - दान देने से पहले या पश्चात् दातार की तारीफ करना ( २८ ) विद्या - विद्या के प्रभाव से रूप बदल कर लेना । (२६) मंत्र - व्यन्तर, साँप, बिच्छू, मंत्र, झाड़ा, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन आदि के मंत्र बतला कर आहार लेना । (३०) चूर्ण - पाचक आदि चूर्णकी विधि बताकर आहार लेना । (३१) योग - तंत्रविद्या या इन्द्रजाल यादि का तमाशा दिखाकर आहार लेना । (३२) मूलकर्म - गर्भपात, स्तंभन, गर्भधारण आदि के प्रयोग दिखला कर आहार लेना । यह सोलह उत्पादन दोष कहलाते है । इन्हें रस के लोलुप साधु लगाते हैं।