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ॐ प्राचार्य
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स्पर्शेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय वाले द्वीन्द्रिय जीवों में छह प्राण होते हैं। पूर्वोक्त चार के अतिरिक्त एक रसनेन्द्रिय और दूसरा वचन बलप्राण% अधिक होता है। शंख और सीप आदि के जीव द्वीन्द्रिय है। खटमल, ज, चिउंटी श्रादि त्रीन्द्रिय जीवों में सात प्राण होते हैं। इनमें एक घ्राणेन्द्रिय प्राण अधिक होता है। भौंरा आदि चौइन्द्रिय जीवों में आठ प्राण पाये जाते हैं । इनमें एक चक्षुरिन्द्रिय प्राण अधिक होता है । मन-रहित (असंज्ञी)+ पंचेन्द्रिय जीवों में नौ प्राण होते हैं। पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय प्राण अधिक होता है । मन वाले (संज्ञी) पंचेन्द्रिय जीवों में मन बल प्राण अधिक होने के कारण दस प्राण होते हैं । इन समस्त प्राणियों की हिंसा का पूर्ण रूप से आजीवन त्याग करना प्रथम महावत है।
पहले महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। वे इस प्रकारः-(१) जमीन को देखे बिना अथवा पूजे विना न चलना ईर्यासमिति भावना कहलाती है। (२) धर्मनिष्ठ पुरुषों को अच्छा जाने और जो पाप करें, उन पर दया लावे कि-यह बेचारे नासमझी से पाप कर रहे हैं । पाप का बदला कितनी कठिनाई से इन्हें चुकाना पड़ेगा ? इस प्रकार धर्मी अधर्मी पर समभाव रखना 'मनपरिजाणइ' भावना है । (३) हिंसाकारी, दोषयुक्त, असत्य और अयोग्य वचन न बोलना 'वयपरिजाणइ' भावना है । (४) भाण्डोपकरण, वस्त्रपात्र आदि प्रमाणोपेत-परिमित रखना और उन्हें यतनापूर्वक ग्रहण करना तथा रखना 'आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समिति' भावना है । (५) वस्त्र, पात्र भोजन-पान आदि किसी भी वस्तु को दृष्टि से देखे विना तथा रजोहरण से प्रमार्जन किये बिना काम में न लाना, सदैव देखकर काम में लाना 'आलोकितपानभोजन भावना है।
____ * जिसके बल-आधार से किसी कार्य मे प्रवृत्ति कर सके उसे बल प्राण कहते हैं।
___जो जीव माता-पिता के संयोग के विना मन (मनन करने की विशिष्ट शक्ति) से रहित होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं ।
+ कोई-कोई वस्त्र पात्र स्थानक आहार आदि निर्दोष वस्तु उपयोग में लाना चौथी 'एषणा समिति' भावना कहते हैं और पाँचवौं निक्षेपणा भावना कहते हैं। किन्तु आचारांग सत्र के २४वें अध्ययन में उक्त प्रकार ही कहा है।