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ॐ अरिहन्त
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दण्ड-नीति चलती है । अर्थात् अपराधी को 'मा' शब्द कह दिया जाता है। 'मा' का अर्थ है-मत, अर्थात् 'ऐसा मत करो'। इस प्रकार कह देना ही अपराध का दण्ड हो जाता है। इससे आगे के पाँच कुलकरों के समय में दण्ड की कुछ कठोरता बढ़ जाती है। उस समय अपराधी को 'धिक' शब्द कह कर दण्ड दिया जाता है। इन दण्डों से लजित होकर उस समय के लोग अपराध से विरत हो जाते हैं।
यद्यपि कल्पवृक्षों की फलदायिनी शक्ति क्रमशः क्षीण होती जाती है, तथापि इस समय तक कल्पवृक्षों से ही निर्वाह होता रहता है। लोगों को अपने निर्वाह के लिए असि (शस्त्रों की आजीविका ), मसि (व्यापार) और कृषि (खेती) सम्बन्धी आजीविका की आवश्यकता नहीं पड़ती। अतएव पहले आरे से लेकर तीसरे आरे के इस समय तक यह भूमि 'अकर्मभूमि' कहलाती है और यहाँ के मनुष्य जोड़े से ही उत्पन्न होते हैं और जोड़े से ही रहते हैं । इस कारण वे युगल, जुगल या जुगलिया कहलाते हैं ।
जब तीसरा आरा समाप्त होने में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और ८॥ महीने शेष रह जाते हैं, तब पूर्वोक्त अयोध्या नगरी में पन्द्रहवें कुलकर से प्रथम तीर्थङ्कर का जन्म होता है। काल के प्रभाव से, जब कल्पवृक्षों से कुछ भी प्राप्ति नहीं होती, तब मनुष्य क्षुधा से पीड़ित और व्याकुल होते हैं। मनुष्यों की यह दशा देख कर और दयाभाव लाकर, उनके प्राणों की रक्षा के लिए, वहाँ स्वभावतः उगे हुए २४ प्रकार के धान्य को और मेवा वगैरह को तीर्थङ्कर भगवान् खाने के लिए बतलाते हैं। कच्चा धान्य खाने से उनका पेट दुखता है, ऐसा जानकर अरणि-काष्ठ से अग्नि उत्पन्न करके उसमें धान्य पकाने को कहते हैं। भोले लोग अग्नि प्रज्वलित करके उसमें धान्य डालते हैं। जब अग्नि उसे भस्म कर देती है तो उनको बड़ी निराशा होती है । वे भाग कर तीर्थङ्कर के पास जाते हैं और कहते हैं-नाथ ! यह अग्नि तो राक्षस है । जितना धान्य पकाने के लिए इसमें डालते हैं, उतने ही को वह हजम कर जाती है ! उसका ही पेट नहीं भर पाता तो हमें क्या देगी ? तय तीर्थङ्कर कुम्भकार की स्थापना करके उसे वर्णन बनाना सिखलाते हैं।