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® जैन-तत्व प्रकाश
लोक में १०८ सिद्ध होते हैं। समुद्र में २,* नदी आदि सरोवरों में ३, प्रत्येक विजय में अलग-अलग २० सिद्ध हों (तो भी एक समय में १०८ से ज्यादा जीव एक समय में सिद्ध नहीं हो सकते )। मेरुपर्वत के भद्रशाल वन, नन्दन वन और सौमनस वन में ४, पाण्डक वन में २, अकर्मभूमि के क्षेत्रों में १०, कर्मभूमि के क्षेत्रों से १०८, पहले, दूसरे और पाँचवें तथा छठे आरे में १० और तीसरे चौथे बारे में १०८ जीव सिद्ध होते हैं। यह संख्या भी सर्वत्र एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वालों की है।
_अवगाहना-आश्रित सिद्ध-जघन्य दो हाथ की अवगाहना वाले एक समय में ४ सिद्ध होते हैं । मध्यमा अवगाहना वाले १०८ और उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले एक समय में २ जीव सिद्ध होते हैं।
सिद्ध होने की रीति-मध्यलोक में, अढाई द्वीप में, १५ कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले, आठों कर्मों को समूल नष्ट करने वाले मनुष्य ही सिद्ध होते हैं। औदारिक, तैजस् और कार्मण शरीर का सर्वथा त्याग करके, अशरीर आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है। आत्मा जब कर्मवन्धन से सर्वथा मुक्त होता है तो अपने स्वभाव से ही उसकी ऊर्ध्वगति होती है। जैसे ऐरंड का फल फटने से उसके भीतर का बीज ऊपर की ओर उछलता है, उसी प्रकार जीव शरीर और कर्म का बन्धन हटने पर लोक के अग्रभाग तक पहुँचता है। अथवा जैसे मिट्टी के लेप से लिप्त तूम्बा लेप के हटने से ही जल के अग्रभाग पर आकर ठहरता है, उसी प्रकार कर्म-बन्धन टूटने से जीव ऊर्ध्वगति करके लोक के अग्रभाग तक पहुँचता है। सिद्ध जीव की गति विग्रह रहित होती है और लोकाग्र तक पहुँचने में उसे सिर्फ एक समय लगता है। सिद्ध जीव लोक के अग्रभाग में क्यों ठहर जाता है ? आगे अलोक में क्यों नहीं जाता ? इसका उत्तर यह है कि आगे धर्मास्तिकाय नहीं है। धर्मास्तिकाय गति में सहायक होता है , अतएव जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जीव की गति होती है। धर्मास्तिकाय के अभाव में आगे—अलीकाकाश में गति नहीं होती।
* समुद्र, नदी, अकर्मभूमि के क्षेत्र पर्वत आदि स्थानों में कोई हरण करके ले जाय, वहाँ वह जीव केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं। ।