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® जैन-तत्त्व प्रकाश,
(५) नैऋत्य कोण में चन्द्राभ विमान है, जिसमें 'गर्दतोय' देव रहते हैं।
(६) पश्चिम में सूर्याभ विमान है, जिसमें 'तुषित' देव रहते हैं। इन दोनों का ७००० देवों का परिवार है ।
(७) वायुकोण में शक्राम विमान है। जिसमें 'अव्याबाध' देव रहते हैं।
(८) उत्तर दिशा में सुप्रतिष्ठित विमान है जिसमें 'अग्नि' देव रहते हैं।
(8) सब के मध्य में अरिष्टाभ विमान है । जिसमें 'अरिष्ट' देव रहते हैं । इन तीनों का ६००० देवों का परिवार है ।
यह नौ ही प्रकार के देव सम्यग्दृष्टि, तीर्थङ्करों को दीक्षा के अवसर पर चेताने वाले ( अपने नियोग के अनुसार तीर्थङ्करों के वैराग्य की प्रशंसा करने वाले) और थोड़े ही भवों में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता वाले होते हैं । लोक (बसनाड़ी) के किनारे पर रहने के कारण इन्हें लौकान्तिक देव कहते हैं।
उक्त पाँचवें देवलोक की सीमा से आधा रज्जु १८॥ रज्जु धनाकार विस्तार में, मेरुपर्वत के बराबर मध्य में, घनवात और घनोदधि के आधार पर छठा लान्तक देवलोक है। इसमें पाँच प्रतर हैं, जिनमें ७०० योजन ऊँचे और २५०० योजन की अंगनाई वाले ५०००० विमान हैं। यहाँ के देवों की आयु जघन्य १० सागरोपम की और उत्कृष्ट १४ सागरोपम की है।
उक्त छठे देवलोक की सीमा पर पाव रज्जु ऊपर और ७। रज्जू घनाकार विस्तार में मेरु पर्वत के बरावर मध्य में, धनवात और घनोदधि के आधार पर सातवाँ 'महाशुक्र' देवलोक है। इसमें चार प्रतर हैं, जिनमें
* असंख्यातवें अरुणवर समुद्र से १७२१ योजन ऊँची, भीत के समान और अंधकारमय तमस्काय निकल कर ऊपर चढती हई चार देवलोकों को लांघ कर पाँचवे देवलोक के तीसरे प्रतर के पास पहुंची है।