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ॐ अरिहन्त 8
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से लगाकर पहले-दूसरे देवलोक तक तीन पन्योपम की आयु वाले देव हैं, जिन्हें 'तीन पल्या' कहते हैं । (२) चौथे देवलोकं तक तीन सागरोपम की आय वाले देव हैं, जिन्हें 'तीन सागरया' कहते हैं । (३) छठे देवलोक तक ऐसे देव, जो १३ सागरोपम की आयु वाले हैं ये 'तेरह सागरया' कहलाते हैं। देव गुरु धर्म की निन्दा करने वाले और तप-संयम की चोरी करने वाले मर कर किल्विषी देव होते हैं ।
देवों की उत्पत्ति उत्पाद-शय्या में होती है। ऐसी उत्पादशय्याएँ संख्यात योजन वाले देवस्थान में संख्यान हैं और असंख्यात योजन वाले में असंख्यात हैं। उन शय्याओं पर देव-दृष्य वस्त्र ढंका रहता है। धर्मात्मा और पुण्यात्मा जीव जब उसमें उत्पन्न होते हैं तो वह अंगारों पर डाली हुई रोटी के समान फूल जाती है । तब पास में रहे हुए देव उस विमान में घंटानाद करते हैं और उसकी अधीनता वाले सभी विमानों में घंटे का नाद हो जाता है । घंटानाद सुनकर देव और देवियाँ उस उत्पादशय्या के पास इकट्ठे हो जाते हैं और जयजयकार की ध्वनि से विमान गूंज उठता है । अन्तमुहर्त्त के बाद उत्पन्न हुआ देव पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर तरुण वय वाले के समान शरीर को धारण करके, देवदृष्य वस्त्रों से शरीर को आच्छादित कर बैठा हो जाता है । तब पास में खड़े हुए देव उससे प्रश्न करते हैं आपने क्या करनी की थी जिससे हमारे नाथ बने ? तब वह देवयोनि के स्वभाव से प्राप्त हुए (भवप्रत्यय) अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म पर विचार करके, यहाँ के स्वजन-मित्रों को सूचना देने के लिए आने को तैयार होता है। तब वे देव कहते हैं-वहाँ जाकर यहाँ का क्या हाल सुनायोगे? पहले महत्तं भर नाटक तो देख लो! तब नत्यकार-अनीक जाति के देव, अपनी दाहिनी भुजा से १०८ कुमार और बाई भुजा से १०८ कुमारियाँ निकाल कर ३२ प्रकार का नाटक करते हैं। गंधर्व-अभीक जाति के देव ४६ प्रकार के वाद्यों के साथ छह राग और तीस रागनियां मधुर स्वर से अलापते हैं । इस में यहाँ के २००० वर्ष पूरे हो जाते हैं । वह देव वहां के सुख में लुब्ध हो जाता है और दिव्य भोगोपभोगों में लीन हो जाता है ।