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* जैन-तत्र प्रकाश
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का मन उनकी ओर आकर्षित हो जाता है । वे देव उनके विकारयुक्त मन का ज्ञान से अवलोकन करके ही तृप्त हो जाते हैं । बारहवें देवलोक के ऊपर वाले देवों को भोग की इच्छा ही नहीं होती ।
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जैसे यहाँ राजा होते हैं वैसे देवलोक में इन्द्र होते है । जैसे यहाँ राजाओं के उमराव होते हैं वैसे ही चौसठ ही देवों के सामानिक देव होते हैं । पुरोहित के समान, इन्द्रों के ३३ त्रयस्त्रिंशक देव होते हैं। राजा के अंगरक्षक के समान इन्द्रों के आत्मरक्षक देव होते हैं । सलाहकार मंत्री के समान इन्द्र की आभ्यन्तर परिषद के ( पारिषद्य) देव होते हैं । वे इन्द्र के बुलाने पर ही आते हैं । कामदारों के समान श्रेष्ठ काम करने वाले मध्यम परिषद् के देव होते हैं। यह देव बुलाने से भी आते हैं और बिना बुलाये भी आते हैं। किंकरों के समान सब काम करने वाले बाह्य परिषद् के देव होते हैं । ये देव विना बुलाये आते हैं और अपने-अपने काम में तत्पर रहते हैं । द्वारपाल के समान चार लोकपाल देव होते हैं ! सेना के समान सात प्रकार के श्रनीक देव होते हैं, वे अपने अपने पद के अनुसार अश्व, गज, रथ, बैल, पैदल आदि का रूप बना कर यथोचित रीति से इन्द्र के काम आते हैं। गंधर्वो की नीक के देव मधुर गान तान करते हैं। नाटक अनीक के देव बत्तीस प्रकार का मनोरम नाट्य आदि करते हैं । श्रभियोग्य देव इन्द्र की सवारी के काम आते हैं । प्रकीर्णक देव विमानों में रहने वाले, प्रजा के समान होते हैं। सभी इन्द्रों की आयु उत्कृष्ट ही होती है । इस प्रकार देवगण पूर्वोपार्जित पुण्य के फल भोगते हुए सुख से अपना काल व्यतीत करते हैं ।
जैसे मनुष्यजाति में चाण्डाल आदि नीच जाति के मनुष्य होते हैं, वैसे ही सब देवों की घृणा के पात्र, कुरूप, अशुभ विक्रिया करने वाले, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी किल्विषक देव तीन प्रकार के होते हैं: --- भवनवासियों
* जैसे नागर बेल के पान हजारों कोस दूर जाने पर भी वहाँ उसकी बेल को कुछ नुकसान पहुँचने से, वहाँ सैकडों कोस के अन्तर पर दूर रहा हुआ पान खराब हो जाता है । तैसे ही बारहवें देवलोक के देव, दूर रहते हुये भी, दूसरे देवलोक की देवी के साथ मानसिक भोग विचार मात्र ( By Thought Power ) से कर सकते हैं ।