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* अरिहन्त
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शेष रहती है तो युगलिनी पुत्र-पुत्री का एक जोड़ा प्रसव करती है । + सिर्फ ४६ दिन तक उनका पालन-पोषण करना पड़ता है । इतने दिनों में वे होशियार और स्वावलम्बी होकर सुख का उपभोग करते हुए विचरने लगते हैं । उनके माता-पिता में से एक को छींक और दूसरे को जँभाई ( उबासी ) आती है। और मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । मृत्यु के बाद वे देवगति प्राप्त करते हैं । उस क्षेत्र के अधिष्ठाता देव युगल के मृतक शरीरों को क्षीर-समुद्र में ले जाकर प्रक्षेप कर देते हैं ।
(२) सुखमा उक्त प्रकार से प्रथम आरे की समाप्ति होने पर तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम का 'सुखमा' नामक दूसरा आरा आरम्भ होता है । दूसरे आरे में, पहले आरे की अपेक्षा वर्ण, रस, गंध और स्पर्श की उत्तमता
अनन्तगुनी हीनता या जाती है । क्रम से घटती घटती दो कोस की शरीर की गहना, दो पम्योपम की आयु और १२८ पसलियाँ रह जाती हैं । दो दिन के अन्तर से हार की इच्छा होती है। फूल, फल और मृत्तिका आदि का आहार करते हैं । पृथ्वी का स्वाद मिश्री के बदले शक्कर जैसा रह जाता है । मृत्यु से छह माह पहले युगलिनी पुत्र-पुत्री के एक जोड़े को जन्म देती है। इस आरे में ६४ दिन तक उनका पालन-पोषण करना पड़ता है । तत्पश्चात् वे स्वावलम्बी हो जाते हैं और सुखोपभोग करते हुए विचरते हैं। शेष कथन पहले आरे के समान ही समझना चाहिए ।
(३) सुखमा दुखमा — दूसरा श्रारा समाप्त होने पर दो कोड़ा कोड़ी सागरोपम का तीसरा सुखमा दुखमा ( बहुत सुख और थोड़ा दुःख ) नामक तीसरा धारा आरम्भ होता है। इस बारे में भी वर्ण, रस, गंध और स्पर्श की उच्चमता में क्रमशः अनन्तगुनी हानि हो जाती है । घटते घटते एक कोस
+ जब युगल की श्रायुपन्द्रह महीना शेष रहती है तब युगलिनी ऋतु को प्राप्त होती है। उस समय युगल का वेद मोहनीय कर्म का उदय तीव्र होने से उनका सम्बन्ध होता है और नारी गर्भ धारण करती है। इससे पहले वे भाई-बहिन की तरह, ब्रह्मचर्य - पूर्वक रहते हैं । इस उत्तमता के कारण युगल - नर और नारी को देवगति ही प्राप्त होती है । ऐसा वृद्धों का कथन हैं ।
* युगल की जितनी आयु मनुष्यगति में होती है, उससे कुछ कम प्रायु देवगति में उन्हें प्राप्त होती है।