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® सिद्ध भगवान् ॐ
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और आधा पहिया डूबे जितना गहरा प्रवाह रह जाता है। उस पानी में कच्छ मच्छ बहुत होते हैं । वे मनुष्य उन्हें पकड़-पकड़ कर और नदी की रेत में गाड़ कर अपने बिलों में भाग जाते हैं। शीत-ताप आदि के योग से जब वे पक जाते हैं तो दूसरी बार आकर उन्हें निकाल लेते हैं। उस पर सब के सब मनुष्य टूट पड़ते हैं और लूट कर खा जाते हैं। मृतक मनुष्य की खोपड़ी में पानी लाकर पीते हैं । जानवर मच्छों वगैरह की बची हुई हड्डियों को खाकर गुजर करते हैं । उस काल के मनुष्य दीन, हीन, दुर्बल, दुर्गन्धित, रुग्ण, अपवित्र, नग्न, आचार-विचार से हीन और माता भगिनी पुत्री आदि के साथ संगम करने वाले होते हैं । छह वर्ष की स्त्री सन्तान का प्रसव करती है। वे कुतिया और शूकरी के समान बहुत परिवार वाले और महा क्लेशमय होते हैं । धर्म-पुण्य से हीन वे दुःख ही दुःख में अपनी सम्पूर्ण आयु व्यतीत करके नरक या तिर्यच गति के अतिथि बन जाते हैं।
(२) उत्सर्पिणीकाल
अवसर्पिणी काल के जिन छह बारों का वर्णन किया गया है वही छह आरे उत्सर्पिणी काल में होते हैं । अन्तर यह है कि उत्सर्पिणी काल में वे उलटे क्रम से होते हैं । उत्सर्पिणी काल दुखमा-दुखमा आरे से प्रारम्भ होकर सुखमा-सुखमा पर समाप्त होता है। आगे उनका वर्णन किया जाता है:
(१) दुखमा-दुखमा-उत्सर्पिणी काल का पहला दुखमा-दुखमा धारा २१००० वर्ष का, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रारम्भ होता है। इसका वर्णन अवसर्पिणी काल के छठे आरे के समान ही समझ लेना चाहिए । विशेषता यह है कि इस काल में आयु और अवगाहना आदि क्रमशः बढ़ती जाती है।
(२) दुखमा-इसके अनन्तर दूसरा दुखमा आरा भी २१००० वर्ष का होता है और वह भी श्रावण कृष्णा प्रतिपद् के दिन प्रारम्भ होता है। इस बारे के आरम्भ होते ही पाँच प्रकार की वृष्टि सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में होती