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ॐ सिद्ध भगवान्
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सरीखी (वर्तमानकाल जैसी) सब व्यवस्था स्थापित हो जाती है। वर्णादि की शुभ पर्यायों में अनन्तगुणी वृद्धि होती है।
(३) दुखमा-सुखमा-नामक पारा ४२००० वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। इसकी सब रचना अवसर्पिणीकाल के चौथे
आरे के समान समझनी चाहिए। इसके तीन वर्ष और ८॥ महीना व्यतीत होने के बाद प्रथम तीर्थङ्कर का जन्म होता है। पहले कहे अनुसार इस बारे में २३ तीर्थङ्कर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव आदि होते हैं। पुद्गल की वर्ण आदि शुभ पर्यायों में अनन्तगुणी वृद्धि होती है ।
(४) सुखमा-दुखमा-तीसरा आरा समाप्त होने पर चौथा सुखमादुखमा आरा दो कोड़ाकोड़ी सागर का प्रारम्भ होता है। इसके ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष और ॥ महीने बाद चौवीसवें तीर्थङ्कर मोक्ष चले जाते हैं; बारहवें चक्रवर्ती की आयु पूर्ण हो जाती है। करोड़ पूर्व का समय व्यतीत होने के बाद कल्पवृक्षों की उत्पत्ति होने लगती है। उन्हीं से मनुष्यों और पशुओं की इच्छा पूर्ण हो जाती है । तब असि, मसि, कृषि आदि के कामधन्धे बन्द हो जाते हैं । युगल उत्पन्न होने लगते हैं। बादर अग्निकाय और धर्म का विच्छेद हो जाता है। इस प्रकार तीसरे बारे में सब मनुष्य अकर्मभूमिक बन जाते हैं । वर्ण आदि की शुभ पर्यायों में वृद्धि होती है ।
(५) सुखमा-तत्पश्चात् सुखमा नामक तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम का पाँचवाँ आरा आरम्भ होता है। इसका समस्त वृत्तांत अवसर्पिणीकाल के दूसरे आरे के समान ही है। वर्ण आदि की शुभ पर्यायों में क्रमशः वृद्धि होती जाती है।
(६) सुखमा-सुखमा-फिर चार कोडाकोड़ी सागरोपम का छठा आरा लगता है। इसका विवरण अवसर्पिणीकाल के प्रथम आरे के समान है । वर्ण आदि की शुभ पर्यायों में अनन्तगुणी वृद्धि होती है।
इस प्रकार दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणीकाल और दसकोड़ाकोड़ी सागरोपम का उत्सर्पिणीकाल होता है। दोनों मिल कर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है। भरत और ऐरावत: