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® जैन-तत्त्व प्रकाश
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की स्थापना करते हैं। इस प्रकार लौकिक कल्याण और लोकोत्तर कल्याण का, जगत् को मार्ग प्रदर्शित करके श्रायु का अन्त होने पर मोक्ष पधारते हैं ।
प्रथम तीर्थङ्कर के समय, राजकुल में प्रथम चक्रवर्ती का भी जन्म होता है। जैसे तीर्थङ्कर की माता १४ स्वप्न देखती हैं उसी प्रकार चक्रवर्ती की माता भी १४ स्वप्न देखती है मगर वे स्वम कुछ मन्द होते हैं। इन चक्रवर्ती का भी देहमान ५०० योजन का. और आयुष्य ८४ लाख पूर्व का होता है। वे चालीस लाख अष्टापदों के बल के धारक होते हैं । युवावस्था प्राप्त होने पर पहले माण्डलिक राजा होते हैं और फिर १३ तेला करके भरतक्षेत्र के छह खण्डों के एकच्छत्र शासक बनते हैं।
चक्रवर्ती की ऋद्धि
चौदह रत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्न और नौ निधियाँ होती हैं । चौदह रत्नों में सात एकेन्द्रिय और सात पंचेन्द्रिय रत्न हैं। निम्नलिखित चौदह रत्नों में प्रारम्भ के सात एकेन्द्रिय और अन्त के सात पंचेन्द्रिय रत्न हैं:
(१) चक्ररत्न सेना के आगे-आगे आकाश में 'गरणाट' शब्द करता हुआ चखता है और छह खण्ड साधने का रास्ता बतलाता है ।
(२) छत्ररत्न-सेना के ऊपर १२ योजन लम्बे, ह योजन चौड़े छत्र के रूप में परिणत हो जाता है और शीत, ताप तथा वायु आदि के उपसर्ग से रक्षा करता है।
(३) दण्डरत्न-विषम स्थान को सम करके सड़क जैसा रास्ता बना. देता है और वैताढ्य पर्वत की दोनों गुफाओं के द्वार खुले करता है।
(४) खड्गरत्न-यह ५० अंगुल लम्बा, १६ अंगुल चौड़ा और आधा अंशुल मोटा होता है, अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाला होता है । हजारों कोसों की