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® जैन-तत्व प्रकाश
(८) अनन्त अनाश्रय-नारकी इतनी भयानक वेदनाएँ भोगते हुए भी शरणहीन हैं, निराधार हैं ! कोई उन्हें आश्रय देने वाला नहीं, दिलासा देने वाला नहीं, सान्त्वना के शब्द कहने वाला नहीं मिलता।
(8) अनन्तं शोक-नारकी जीव सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते हैं।
(१०) अनन्त भय-नरक की भूमि ऐसी अन्धकारमयी है कि करोड़ों सूर्य मिलकर भी वहाँ प्रकाश नहीं कर सकते । नारकियों का शरीर भी महाभयानक काला होता है । चारों ओर मार-मार का कोलाहल मचा रहता है। इत्यादि कारणों से नारकी जीव प्रतिक्षण भय से व्याकुल रहते हैं।
___ यह दस प्रकार की वेदनाएँ* सभी नारकियों को सदैव भोगनी पड़ती हैं । इनके कारण प्रतिक्षण दुःखी रहते हैं । पल भर भी आराम नहीं पाते।
प्रश्न-ऐसे महादुःख वाले नरक में किस पाप-कर्म के उदय से जीव जाता है ?
उत्तर-सूयगडांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के, पाँचवें अध्ययन में कहा है:
तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसती आयसुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अदचहारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि ॥ पागब्भि पाणे बहुणं तिपाती, अनिव्वते घातमुवेति बाले । णिहो णिसं गच्छति अन्तकाले, अहोसिरं कट्ठ उवेइ दुग्गं ॥
अर्थ-जो प्राणी अपने सुख के लिए त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय) और स्थावर (पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय ) के जीवों की तीव-निर्दय-क्षुद्र परिणाम से हिंसा करता है, उन्हें मर्दन कर परिताप उपजाता है, परद्रव्य का हरण करताचोरी करता है, राहगीर को लूटता है, सेवन करने योग्य व्रतों का
___ * पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे नरक में ताप की वेदना होती है। पाँचवें नरक के उपरी भाग में भी ताप की वेदना होती है। पाँचवें के निचले भाग में तथा छठे-सातवें नरक में शीत वेदना होती है। शेष सभी वेदनाएँ सभी नरकों में हैं।