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® सिद्ध भगवान् ७
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मध्यलोक का वर्णन
रत्नप्रभा भूमि के ऊपर एक हजार योजन का पृथ्वीपिण्ड है । उसमें से एक सौ योजन ऊपर और एक सौ योजन नीचे छोड़ कर, बीच में ८०० योजन की पोलार है। इस पोलार में असंख्यात नगर (ग्राम) हैं । इन नगरों में आठ प्रकार के व्यन्तर देव रहते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) पिशाच (२) भूत (३) यक्ष (४) राक्षस (५) किन्नर (६) किंपुरुष (७) महोरग () गन्धर्व। ___ ऊपर के भाग में सौ योजन जो छोड़ दिये थे, उसमें भी दस योजन ऊपर और दस योजन नीचे छोड़ कर, बीच में अस्सी योजन की पोलार है। इस पोलार में भी असंख्यात नगर हैं और इन नगरों में आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव रहते हैं। यथा-(१) आनपनी (२) पानपन्नी (३) इसीवाइ (४) भूइवाइ (५) कन्दिय (६) महाकन्दिय (७) कोहंड और (८) पइंग देव ।
उक्त आठ सौ योजन वाली और अस्सी योजन वाली पोलार में व्यन्तरों और वाण व्यतरों के जो नगर हैं, उनमें छोटे से छोटा भरत क्षेत्र के बराबर (५२६ योजन से कुछ अधिक), मध्यम महाविदेह क्षेत्र के बराबर (३३६८४ योजन से कुछ अधिक), और बड़े से बड़ा जम्बूद्वीप के बराबर (एक लाख योजन) का है।
उक्त दोनों पोलारों के दो-दो विभाग हैं-दक्षिण भाग और उत्तर भाग । इन विभागों में रहने वाले सोलह प्रकार के व्यन्तर तथा वाण व्यन्तर देवों की एक-एक जाति में दो-दो इन्द्र हैं। अतः कुल बत्तीस इन्द्र हैं, जिनके नाम आगे के कोष्ठक में दिये गये हैं। प्रत्येक इन्द्र के चार-चार हजार सामानिक देव हैं, सोलह-सोलह हजार प्रात्मरक्षक देव हैं, चार-चार