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28 जैन-तत्त्व प्रकाश
(६ कला)+ का विस्तार वाला है। भरत क्षेत्र के मध्य में, पूर्व-पश्चिम में १०७२०18 योजन (१२ कला) का लम्बा उत्तर-दक्षिण में ५० योजन चौड़ा, २५ योजन ऊँचा, ६/योजन पृथ्वी के भीतर गहरा, रजतमय वैताढ्य पर्वत है। इस पर्वत में ५० योजन लम्बी (आरपार), १२ योजन चौड़ी और ८ योजनची घोर अन्धकार से व्याप्त दो गुफाएँ हैं-पूर्व में खण्डगुफा और पश्चिम में तमस्गुफा । इन गुफाओं के मध्य में भित्ति से निकली हुई और तीन-तीन योजन जाकर गङ्गा एवं सिंधु में मिली दो नदियाँ हैं । उनके नाम-उद्गमजला और निमग्नजला हैं ।x
पृथ्वी से दस योजन की उँचाई पर वैताब्य पर्वत पर १० योजन चौड़ी और वैताब्य पर्वत के बराबर लम्बी दो विद्याधरश्रेणियाँ हैं । दक्षिण की श्रेणी में गगनवल्लभ आदि ५० नगर हैं और उत्तर श्रेणी में रधानुपुर चक्रवाल आदि ६० नगर हैं। इनमें रोहिणी, प्रज्ञप्ति गगनगामिनी आदि हजारों विद्याओं के धारक विद्याधर ( मनुष्य ) रहते हैं। वहाँ से १० योजन ऊपर इसी प्रकार की दो श्रेणियाँ और हैं। वह आभियोग्य देवों की हैं। वहाँ प्रथम देवलोक के इन्द्र शक्रेन्द्रजी के द्वारपाल–(१) पूर्व दिशा के स्वामी सोम महाराज (२) दक्षिण दिशा के स्वामी यम महाराज (३) पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण महाराज और (४) उत्तर दिशा के स्वामी वैश्रवण महाराज के आज्ञापालक और (१) अन्न के रक्षक अन्नजम्भक (२) पानी के रक्षक पानजम्भक (३) सुवर्ण आदि धातुओं के रक्षक लयनजम्भक (४) मकान के रक्षक शयनजम्भक (५) वस्त्र के रक्षक वस्त्रजम्भक (६) फलों के रक्षक फलज़म्भक (७) फूलों के रक्षक फूलज़म्भक () साथ रहे हुए फलों और फूलों के रक्षक फल-फूलज़म्भक (8) पत्र-भाजी के रक्षक अविपतज़म्भक और (१०) बीच-धान्य के रक्षक बीजजम्भक-इन दस प्रकार के देवों के प्रावास हैं । यह देव अपने-अपने नाम के अनुसार वाणव्यन्तर देवों से अन्न-पानी
+ एक योजन के दसवें भाग को कला कहते हैं ।
४ उमगजला नदी में कोई सजीव या निर्जीव वस्तु पड़ जाय तो उसे वह तीन बार घुमा-फिरा कर बाहर फेंक देती है और निमग्नजला वस्तु को तीन बार थुमा कर पाताल में बैठा देती है।