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जैन- तख प्रकाश
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चल कर छह-छह सौ योजन लम्बे-चौड़े - (१) हयमुख (२) गजमुख (३) हरिमुख और (४) व्याघ्रमुख नामक चार द्वीप हैं । इनसे सात सौ योजन आगे सात-सात सौ योजन लम्बे-चौड़े -- अश्वकर्ण (२) सिंह (३) और (४) कर्णप्रावरण नामक चार द्वीप हैं । इनसे आठ सौ योजन आगे आठ-आठ सौ योजन लम्बे-चौड़े – (१) उल्कामुख (२) मेघमुख (३) विद्युमुख र (४) मुख नामक चार द्वीप हैं । इनसे नौ सौ योजन आगे नौनौ सौ योजन लम्बे-चौड़े (१) वनदन्त (२) लप्टदन्त ( ३ ) ] गूढ़दन्त और (४) शुद्धदन्त नामक चार द्वीप हैं । यह सब २८ ही द्वीप जगती से तो तीन-तीन सौ योजन ही दूर हैं किन्तु दाढ़ों के वक्र होने के कारण इन द्वीपों के बीच इतनी दूरी है ।
चुल्लहिमवान् पर्वत की तरह ऐरावत क्षेत्र की सीमा करने वाले शिखरि पर्वत की दाढ़ों पर भी उक्त नामके ही २८ द्वीप हैं । इस प्रकार दोनों तरफ के मिल कर सब द्वीप ५६ होते हैं । इन अन्तद्वीपों में एक पल्योपम के संख्यातवें भाग की आयु वाले, ७७५ धनुष की अवगाहना वाले युगलिया मनुष्य रहते हैं। इन द्वीपों में सदैव तीसरे आरे जैसी रचना रहती है । यहाँ के मनुष्य मर कर एक मात्र देवगति में ही उत्पन्न होते हैं ।
जम्बूद्वीप के चारों द्वारों से पंचानवे - पंचानवे हजार योजन की दूरी पर लवण समुद्र के भीतर बज्ररत्न के चार पाताल- कलश हैं । वे एक लाख योजन गहरे हैं । पचास हजार योजन बीच में चौड़े हैं, एक हजार योजन तलभाग में चौड़े हैं और एक हजार योजन मुखभाग में चौड़े हैं । उनका १०० योजन मोटा दल (ठीकरी) है। उनके नाम इस प्रकार हैं(१) पूर्व में वलयमुख, (२) दक्षिण में केतु (३) पश्चिम में यूप और (४) उत्तर में ईश्वर, प्रत्येक कलश के तीन-तीन काण्ड हैं ।
प्रथम काण्ड में
*पों का जैसा नाम है, वैसी ही आकृति वाले मनुष्य वहाँ रहते हैं, ऐसा दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रंथों में उल्लेख है ।
+ किन्हीं आचार्यों के मत चुल्ल हिमवान् पर्वत और शिखरि पर्वत के दोनों कोनों से लवण समुद्र में, उर्युक्त अन्तर से अलग-अलग डूंगरियाँ (बेट) हैं । इस कारण इन्हें तप कहते हैं ।