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® जैन-तत्त्व प्रकाश
के समान काला एक-एक रत्न एक-एक हजार योजन का है। ऐसे सोलह रनों का १६००० योजन का खर काण्ड है; ८००० योजन का अपबहुल काण्ड है और ८४००० योजन का पंकबहुलं काण्ड है। इस प्रकार सब मिलकर १,८०,००० योजन का पृथ्वीपिण्ड है। उसमें से ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर बीच में १,७८,००० योजन की पोलार है । इसमें तेरह पाथड़े और बारह अन्तर हैं। प्रत्येक पाथड़ा ३००० योजन का है और प्रत्येक अन्तर ११५८२३ योजन का है । एक ऊपर का और एक नीचे का अन्तर खाली है। शेष बीच के दस अन्तरों में असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपतिदेव रहते हैं। प्रत्येक पाथड़े के मध्य में १००० योजन की पोलार है, जिसमें ३०००००० नारकावास हैं। इनमें असंख्यात कुंभियाँ हैं
और असंख्यात नारकी जीव हैं। इनका देहमान ७॥ धनुष और ६॥ अंगुल का है और आयुष्य जघन्य १०००० वर्ष का तथा उत्कृष्ट एक सागरोपम का है।*
__सातों नरकों के सब मिलकर ४६ पाथड़े, ४२ अन्तर और ८४००००० नारकावास होते हैं। सब नारकावास अन्दर से गोलाकार और बाहर से चौकोर, पाषाणमय भूमितल वाले और महा दुर्गन्धमय हैं । वहाँ की भूमि का स्पर्श करने से ही इतनी भयानक वेदना होती है, जैसे एक हजार विच्छुओं के एक साथ काटने से होती है ।
सातवें नरक का 'अप्रतिष्ठ' (अप्पइट्ठ) नामक नारकावास १००००० योजन का लम्बा-चौड़ा और गोलाकार है और पहले नरक का सीमन्त' नामक नारकावास ४५००००० योजन का लम्बा-चौड़ा और गोलाकार है। शेष सब नारकावास असंख्यात-असंख्यात योजन लम्बे-चौड़े हैं; तीन हजार
* वर्ष, पल्योपम और सागरोपम का परिमाण-एक बार आँख का पलक गिराने में असंख्यात समय बीत जाते हैं। ऐसे असंख्यात समयों की एक श्रावलिका, ४४८० आवलिकाओं का एक श्वासोवास, निरोग पुरुष के ३७७३ श्वासोच्छवास का एक मुहूर्त ( दो घड़ी), तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र (दिन-रात), पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्ष का एक महीना, दो महीनों की एक ऋतु, (बसन्त आदि), तीन ऋतुओं का एक प्रयन (उत्तरायसा और दक्षिणायन), दो अयन का एक वर्ष और पाँच वर्ष का एक युग। एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े, एक योजन गहरे गोलाकार गड़हे में, देवकुरु-उत्तर कुरुक्षेत्र