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अर्थात अध्यात्म आदि तीन प्रकारके मन्त्र जो कि वास्तव में पाँच प्रकार के हैं ।
इसका यह अर्थ नहीं हैं कि प्रत्येक मन्त्रकं तीन प्रकार के श्रथवा पाँच प्रकारके अर्थ होते हैं । १८२
अतः प्रत्येक मन्त्र के अनेक प्रकारके अर्थ करना वैदिक वांगम के सर्वथा विरुद्ध है।
परन्तु कुछ मन्त्र अध्यात्म वादके अवश्य हैं और वे आत्मपरक हैं ईश्वर पर नहीं ।
तथा च निरुक्त अध्याय में (इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः ) ऋ० ३ । १८ । १ की व्याख्या करते हुये लिखा है कि"ईश्वरः सर्वेषां गोपायिता श्रादित्यः । -- ईश्वरः सर्वेन्द्रियाणां गोपायिता श्रात्मा ।।"
निरुक्तकारने ईश्वर के चार नामोंमें एक "इन" शब्दको ही व्याख्या की है। यहाँ आदित्यको ईश्वर माना है तथा आत्माको इसलिये ईश्वर माना है कि वह सब इन्द्रियोंका पालन करता है । बस यदि यास्काचार्य के मत में वेदोंमें ईश्वरका कथन होता तो वह अवश्य इस स्थल पर ( अथवा किसी अन्य स्थान पर ) उसका वर्णन करते परन्तु ऐसा न करके सूर्यको ईश्वर बनाना तथा आत्माको ईश्वर कहना यह स्पष्ट सिद्ध करता है कि निरुक्तके समय तक भारत में ईश्वरकी मान्यता नहीं थी ।
यहाँ पर पंद
सामाश्रमजी ने लिखा है कि-
"तन्त्र यद्यपि जडात्मकस्य आदित्यस्य चैतन्यात्मकस्य जीवात्मनश्चेश्वरत्वमुपात्तम् ।"...
अर्थात् - यहाँ जड़ सूर्य व जीवात्माको ईश्वरत्व कहा गया है