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चतुका रूप धारण करके श्रांखों के स्थानमें निवास किया १४) दिशाएं श्रोत्र बन कर फ्रानमें रहने लगी, (५) औषधिअनस्पतियां केश पन वयामें रहने लगी, (६) चन्द्रमा मन बन कर हृदय स्थानमें प्रविष्ट हुमा, (७) मृत्यु अपानका रूप धारण करके नाभि स्थानमें रहने लगा, (८) ज. देवता रेत धन कर शिश्न में रहने लगा।
इस ऐतरेय उपनिषदके कथनानुसार अग्नि, वायु, रवि, दिशा, औषधि, चन्द्र, मृत्यु, आप इम पाठ देवताका निवास उक्त बाद स्थान में हुआ है। पाठक जान सकते है कि इसी प्रकार अन्य देवता. जो बाहर के जगत् में हैं और जिनका वर्णन वेदमें सर्वत्र है. उनके अश मनुष्य शरीरमे विविध स्थानों में रहते है। इस प्रकार हमारा एक २ शरीर सब देवतामीका दिव्य साम्राज्य हूँ और उसका अधिष्ठाता आत्मा है। तथा इसी आत्माफी शक्ति उक्त सब देवताओं में प्रविष्ट होकर कार्य करती है, इसका अधिक विचार करनेके पूर्व अथर्व वेश्के निम्न लिखित मंत्र देखने योग्य हूँ ! १-दश साकम जार्यत देवा देवेभ्या पुरा ।
यो चै तान्विद्यात्प्रत्यक्षं स वा अद्य महददेव ॥३॥ २- ये तासन् दश जाता देवा देवेभ्यः पुस ।
पुत्रेभ्यो लोक दुस्मा कस्मिस्ते लोक आसते ॥१०॥ ३-संसिको नाम ते देवा ये संभारान्समाभरम् ।
सर्व संसिच्य पत्ये देवाः धुरुष माविशन् ।। १३ ॥ ४–यदा त्वष्टा व्यतणत् पितात्वष्टुर्य उत्तरः ।
गृहं कृत्वामय देवाः पुरुषमाविशन् ॥ १८ ॥