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संवत्सरोऽधिपतिरासीत् । पञ्चदशभिरस्तुवत । क्षत्रमसृज्यन्त । इन्द्रोऽधिपतिरासीत् सप्तदशभिरस्तुवत | ग्राम्याः पशवोऽसृज्यन्त । वृहस्पति, रासीत् ।
(शु० यजु० माध्य० सं० १४।३०:२६) अर्थ-दो आँख. दो कान, यो नाक एक वाणी, यह सात उर्ध्वप्राण तथा दो अधः प्राण इस प्रकार नौ प्राणों के साथ प्रजापति ने पांचवी स्तुति की जिससे पितरों की उत्पत्ति हुई । श्वदिति इनकी प्रतिपत्री हई । ५ १ दम प्राण और एक आत्मा इन ११ के साथ प्रजापति ने छठी स्तुति की जिससे ऋतुओं की उत्पत्ति हुई, आसवदेव इनका अधिपति बना (६) प्राण दो पोष एक आत्मा इन तेरह के साथ प्रजापति ने सातथी स्तुति की जिससे महीनों की उत्पत्ति हुई. संवत्सर इनका अधिपति बना (७) हाथों की दस अंगुलियां. दो हाथ. दो बाई और एक नाभि के ऊपर का भाग इन पन्द्रहों के साथ प्रजापतिने पाठवीं स्तुति की जिससे क्षत्रिय जाति की उत्पत्ति हुई इन्द्र इसका अधिपति बना (८) पैरों की दस अंगुलियां. दो उरु, दो जंघार, और एक नाभि के नीचे का भाग, इन सत्रह के साथ प्रजापति ने नववीं स्तुति की. जिससे माम्य पशुओं की उत्पत्ति हुई, वृहस्पति इनका अधिपति हुमा (6)
नव दशभिरस्तुघत । शूद्राविसृज्येतामहोरात्रे अधिपत्नी प्रास्ताम् । एकविंशत्याऽस्तुबत । एक शफाः पशवोऽमृज्यन्त वरुणोधियसिरामीन त्रयोविंशत्याऽस्तुक्त । क्षुद्रापशवोऽमृज्यन्त पूषाःधिपतिरासीन् । पञ्चविंशत्याऽस्तुवत | भारण्याः पशवोऽसृज्यन्त वायुर धिपतिरासीत्। सप्तविंशत्याऽ