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अभिव्यक्ति नहीं होती। गीता ने भी नासतो विद्यतेऽभावः नाभावो विद्यते सतः " कहकर इसका समर्थन किया । तथा छान्दो ग्यने "कथमतः संब्जायेत्" कहकर पुष्टिको अस्तु यहां प्रकरा यह है कि नैयायिकों का सिद्धान्त असत्कार्यवाद है । इसी लिये उन्होंने कार्य का लक्षण ( प्रागभाव प्रतियोगित्वं कार्यत्वम् ) किया अर्थात् जो प्राग अभाव का प्रतियोगी है वह कार्य हैं। यह लक्षण उत्पत्ति से पूर्व कार्य का अभाव प्रदर्शनार्थ ही किया है। यहां प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, सावयव, कार्य की उत्पत्ति भी अवयव के नाश से ही माननी होगी। यदि ऐसा न मानें तब तो असत कार्यवाद समाप्त होता है। और यदि यह मानें कि अवयवों का नाश हो जानेपर सावयवस्त्र उत्पन्न होता है तो परमाणु नित्यत्ववाद का घात होता है। अतः उभयतः पाशा रज्जु" न्याय से नैयायिक बंध जाता है । अतः कार्य का लक्षण सावयत्व ठीक नहीं यदि सत्कार्यवाद को मान कर कार्यका लक्षण सावयवत्व किया जाय. तो भी हमारे पक्ष की पुष्टि होती है, उस अवस्था में सावत्र भी कार्य रहेगा तथा यहां कारण भी इसी प्रकार निरवयव कारण भी और कार्य भी। क्योंकि सत्कार्यवाद के अनुसार निरवयव में सावयवत्व विद्यमान हैं और सावयव में निरवयवत्व | वहां तो केवल प्रकट होने का नाम ही कार्य है । अथवा इसको यों भी कह सकते हैं कि कार्य और कारण सापेक्ष शब्द हैं। सोना तार का
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कारण है और तार जेवर का कारण है । अतः तार कारण भी है. और कार्य भी है. इसी प्रकार संपूर्ण पदार्थों के विषय में यही कार्य कारण भाव होता है। अतः यह सिद्ध हैं कि कार्य की कारण से पृथक सत्ता नहीं है, अपितु कारण की एक अवस्था का नाम कार्य है। तथा एक अवस्था का नाम कारण हैं। अतः जगत ही नहीं अपितु परमाणु आदि भी कार्य है। इसी प्रकार ईश्वर भी कार्य सिद्ध हो गया ।