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समीक्षा, यहां आपने प्रथम तो क्रियाको साध्य मान लिया है. परन्तु यहां तो साध्य ईश्वर है न कि क्रिया । क्रिया तो प्रत्यक्ष है वह साध्य किस प्रकार हो सकती है। आगे अपने वस्तुको साध्य मान लिया, इसलिए आपने लिखा है कि किसी पक्षको यह अधिकार नहीं है कि साध्यकोदि की किसी वस्तुको दान्तके रूप में उपस्थित कर सके ।" इसीसे कि पुस्तक लिखते समय आपने 'सिद्ध' और 'साध्य' का विशेषविचार पूर्वक अध्यन करने का कष्ट नहीं उठाया शेष रह गया क्रिया व कर्त्ताका प्रश्न सो तो आपने स्वयं ही दो प्रकारकी क्रियायें मानकर (एक प्रशिकृत दूसरी श्रप्राणिकृत अर्थात् जड़कृत) इसका निर्णय कर दिया । तथा आपके सो सिद्धान्धानुसार तो प्रत्येक किया जड़ कृत ही होती है। उसके मतानुसार पुरुष तो निष्क्रिय तथा अकर्त्ता है, वह तो साक्षी चेताफेचलो निर्गुणश्च ' है अर्थात पुरुष क्रिया शून्य हाता द्रष्टा व निगुण हैं ।
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अतः जिसको आप प्राणिकृत कियायें बनाते हैं वे भी वास्तव में जड़ की क्रियायें हैं। जड़ के संयोग से प्राणि (जीव ) को भी क्रियाका कर्ता कहा जाता है। प्रशस्तपाद भाष्य में ही कर्म (क्रिया) के जहां लक्षण किये हैं वहां स्पष्ट कर दिया है कि क्रिया मूत्तं deaf ही होती है। वहां लिखा है कि-- पृथ्वी, जल, वायु. अग्नि और मन ही क्रिया के आधार हैं । आत्मा श्राकाश आदि में न किया है और न वह क्रिया देसकते हैं। क्योंकि जो स्वयं क्रिया रहित है वह दूसरों को किया नहीं देसकता जो स्वयं श्रज्ञ नीचे वह दूसरे कोज्ञ'न नहीं सकता । अतः यह सिद्ध है कि क्रिया जड़में ही होती है तथा जड़ ही देता है। चेतन तो निष्क्रय शान्त स्वभावी है। इस देह में रक्त संचालन, श्वासादि की जो क्रियायें होती हैं उनको भी वैशेषिक दर्शनकारने अदृष्टजन्य माना है। यह अभी जड़ है।