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समान अलास का नहीं है कि नासाले यो गुण है : लिया को हम ईश्वर कहते हैं। इस प्रकार ईश्वर एक ठहरता है अनेक नहीं। ___समीक्षा:--वैदिक शब्दोंका इस प्रकार अनर्थ करके भी बेचारे ईश्वर की सिद्धि न हो सकी यही दुःखका विषय है। यदि आपके ही इन अनर्थों को स्वीकार कर लिया जाये और प्रान एवं सत्यको ईश्वरकी दो क्रिया मान ली जायें तो भी आपने इसी पृष्ठमें मन्त्रका अर्थ करते हुए लिखा है कि "ऋत और सत्य अभिद्ध तथा 'तपस' से उत्पन्न हुए । '' आपने यहां ऋत' तथ। सत्य का
उत्पन्न होना लिखा है । तथ यह सिद्ध हुआ कि ईश्वरमें ये शक्तियां सरद. “गसे नहीं है, अपितु उत्पन्न हुई है । कय उत्पन्न हुई है इस प्रश्नको अक्षर भयकता नहीं है। क्योंकि यहां सृष्टिका प्रकरण है अतः उसी समय ईश्वरी- ये शक्तियां पैदा होगई। _ प्रश्न यहाँ यह है कि ये शो ' क्तिया भावसे उत्पन्न हुई या अभाव से । यदि भावसे तो यह सिद्ध होगत. गा कि ये शक्तियां ईश्वरकी नहीं हैं अपितु अन्यद्रव्यकी हैं। और ईश्वरन पुनसे मांग कर या बल प्रयोगसे ले ली है। अथवा यह भी हो सकता है कि उन्हीं पदार्थीको (जिनके पास ये शक्तियां थीं) दया आ गई है और उन्होंने ईश्वरको बिना मांगे दे दी हो। यह भी संभव है कि ईजार
और प्रकृति श्रादिके मेलसे ग्रह शक्ति ईश्वर में उत्पन्न हो गई हो । यदि ऐसा है तो वे शक्तियां विकृत कहलायेंगी और ईश्वर विकारी सिद्ध होगा । यदि अभावसे ही ये शक्तियां उत्पन्न होगई तो फिर ईश्वर की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर में ये शक्तियां अभावसे उत्पन्न हो गई उसी प्रकार अन्य पदार्थों में भी हो सकती है। क्योंकि अभावमें ईमें ही उत्पन्न करनेका कोई नियामक महीं है। अभिप्राय यह है कि ईश्वरकी सिद्धिके लिये जो जो युक्तियां दी जाती हैं ये सच ईश्वरके विरुद्ध सिद्ध