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होनेकी होती है। यह दूसरी शक्ति तापरूप में होकर शीतलता प्राप्त वस्तुओमें बँटकर आगे ताप रूपमें काममें आनेके अयोग्य हो जाती है। पहले प्रकारका ताप काम में आने के अयोग्य हो जाती है । पहले प्रकारका ताप काम में श्रा-आकर कम होता रहता है और दूसरा काममें न आने वाला ताप, पहले तापके व्ययसे, बढ़ता रहता है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड की कर्तृत्व शक्ति दूसरे प्रकारके ताप रूप में परिवर्तित होती रहती है और काममें नहीं आया करती। यह काम होते होते जगत से शीतोष्ण के अन्तरों को दूर कर देती है और पूर्ण रूप से उन वस्तुओं में समाविष्ट हो जाती है जिन्हें गदिशून्य . और काम के अयोग्य द्रव्य कहते हैं। ऐसा हो जाने पर प्राणियों का जीवन और गति समार हो जानी है ! जब यह दूसरा ताप पहले को समास करके पूर्णता प्राप्त कर लेता है तभी महाप्रलय हो जाता है।
इस अवस्थाको प्राप्त हो जाने और नियत अवधि तक कायम रहनेके याद जब जगत उत्पन्न होता है, तब प्रत्येक लोक क्या
और प्रत्येक योनि क्या, नये सिरेसे अन्नती है . यहां लोक नहीं किन्तु योनिके उत्पन्न होने के सम्बन्ध में विचार करना है।-भिन्न भिन्न प्राणियों के शरीर जैसा बैंशोषिक दर्शन में लिखा है दा प्रकार के होते हैं।
(१) योनि' जो माताः पिढ़ाके संगसे उत्पन्न होते हैं, जिसे मैथुनी सृष्टि कहते हैं।
* तत्र शरीरम् द्विविधा योनिजम योनिजं च | ( वैशे० ४।२।६)
लोट--इस सूत्रके महायमें, प्राचार्य प्रशस्त पाद ने लिया है ।के जल, अग्नि और वायुसे उत्पन्न शरीर अयोनिज होते हैं । श्राच प्रशस्तपाद की यह बात प्रशस्त नहीं है।