________________
प्रिय पाठक वृन्द !
मेरी आन्तरिकल की कि
विशु
रूपमें आप लोगों के संमुख उपस्थित करू. किन्तु पूर्ण प्रयत्न करने पर भी इसमें बहुत सी अशुद्धियां रह ही गई जिसके लिये मुझे बहुत खेद हैं। अस्तु विशेष विशेष अशुद्धियोंका शुद्धिपत्र" दे रहा हूँ फिर भी जो अशुद्धियां रह गई हो उन्हें गुरोकपक्षपाती आप महानुभाव, स्वयं सुधार कर स्वाध्याय करें यही प्रार्थना है.
I
प्रध
पंक्ति
शुद्ध
अधिष्ठातारः
पुरुष विप्रहाः अधिष्ठाता
(5)
७
6.
११
४१
१३
१४
१६
१६
१७
१७
१६
११
१८.
१६
·
४
१८
शुद्धाशुद्धि पत्र
·
अशुद्ध
अधिष्टातारः
徵 दातरणाम्
१४
रन्तरिसस्य
सूर्यचक्षुषा
वह्निस्पथा
पुरुष विमाहाः अधिष्ठाता
मरुदगण
अमिवनस्पति
यत
सोऽनि
स्वर्ग
मनुष्म
जनसे
मरुद्गण अनिर्वनस्पति
दातणाम्
रन्तरिक्षस्य
सूर्यश्चक्षुषा
वह्निस्तथा
ऋत
सोऽग्निः
स्वर्ग
मनुष्य
सबसे