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मानवं नरकं नेतुं समीच्छति महेश्वरः । एतान कारयति स्वामी पाप कर्मैव केवलम् |
आत्मपुराण श्र० ४ - २३३-३४-३५
अर्थात् जिस प्रकार स्वामी अपने नौकरोंसे कार्य कराता है, उसी प्रकार महेश्वर जीवोंसे काम कराता है। जिनकी नरक भेजना चाहता है उनसे पाप कराता है, तथा जिनको स्वर्ग भेजना चाहता है उनसे पुण्य कराता है
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आगे अपने सृष्टिमें जिन बातों को बताया है, ये सब बातें ईश्वर में भी सिद्ध यथा
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(१) ईश्वर नियमानुकूल हैं ।
(२) नियम अटल है ।
(३) ये नियम ईश्वर पर शासन करते हैं अर्थात् इनके अनुफूल ईश्वरको कार्य करना पड़ता है।
इसलिये सिद्ध है कि ईश्वरका कोई नियन्ता है। यदि कहो कि ईश्वर में नियम स्वाभाविक है उसका कोई नियामक नहीं है तो यही मानने में क्या आपत्ति है कि ये नियम जगतमें भी स्वाभाविक है उसका भी कोई नियामक नहीं है। यदि कहो कि नियम चेतन कृत होते हैं तो भी ठीक नहीं क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखने कि जलका नियम हैं नीचेको जाना तथा अमिका नियम है ऊपरको जाना | इत्यादि प्रत्येक जड़ पदार्थ नियम है। आगे आपने साकार और निराकारका प्रकरण प्रारम्भ किया है। यहां आपने जो वस्तु चक्षु इन्द्रियसे देखी जा सके उसे ही साकार माना है जो कि निराधार हैं। आगे आपने एक श्रुति दी है जिसमें 'ब्रह्म' आत्मा के दो रूपों का कथन है वहां आपने 'ना' के अर्थ सृष्टि कर लिये हैं जो कि