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जैन शास्त्र और प्रलय
एवं गच्छति कालेऽस्मिन्नेतस्य परमावध, निःशेषं शेषामेतेषां शरीरमिव संक्षयम् ॥४४६ ॥ श्रति रुक्षा घरा तत्र भाविनी स्फुटिलस्फुटम्
प्रलयः प्राणिनामेवं प्रायेणापि जनिष्यते ||४५२|| तेभ्यः शेषजनाः नश्यन्ति विषाग्नि वर्ष दग्धमही,
एक योजन मात्रमधः चूर्णी क्रियते हि कालवशात्८६ त्रिलोक सार
अर्थात् - छठे काल के अन्त में अभि विषादि की वर्षा से तथा अत्यन्त रुक्ष हवा के चलने से इस भारत वर्ष में प्रलय होगी। उस में प्रायः सभी जीव नष्ट हो जायेंगे। कुछ मनुष्यादि के जोड़े पर्वतों में शेष रह जायेंगे। उनसे पुनः सृष्टि उत्पन्न होगी। इस में यह पृथिवी भी एक योजन गहराई तक नष्ट हो जायगी आदि । श्रव मनुकी नौका वाली प्रलय का कथन करते हैं । मनु और प्रलय
प्रलय
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अथर्ववेद, कां.१६ सूक्त ३० मन्त्र -
यत्र नाव प्रभ्रंशनं यत्र हिमवतः शिरः । तत्रामृतस्य चक्षणः ततः कुष्टो अजायत || इसका यह है कि जहाँ मनुकी नौका ठहराई गईथी वह हिमालय वहाँ पर कुछ औषधि उत्पन्न होती है। कई विद्वान उसको नहीं मानते वे कहते हैं कि यहाँ यह पाठ इस प्रकार का है. (न अव प्रभ्रंशन ) जिसका अर्थ जहां स्वतन नहीं होता ऐसा है ।
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