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नैयायिकों ने केवल सावयव पदार्थको ही कार्य माना है। और यह निर्विवाद है कि सावयबल्य संश्लेषणात्मक क्रियाका ही परिणाम है। अतः यह सिद्ध है कि नैयायिक लोग संश्लेषणात्मक कियाके लिये काकी श्रावश्यकता समझते हैं। इसका तो विशेष विवेचन मागे कर्ता' प्रकरण में करेंगे, यहां तो कार्य का प्रकरण है, अतः यहां तो यह देखना है कि नैयायिकीका यह लक्षण ठीक है या नहीं।
काय कारण। संबंध दर्शनशास्त्र में चार सरहका माना गया है। ?) असत् से सत् की उत्पत्सि ( बौद्ध) (२)सन से असन् की उत्पत्ति ( वेदान्त ) {३) सन् से सत् की उत्पत्ति ( सांख्य ) (४) असत् कार्य पाद या प्रारंभवाद ( नैयायिक) इन नैयायिकों के सिद्धान्त का नाम प्रारम्भयाद अथवा असम् कार्यवाद है। इसका अभिप्राय यह है कि बोज के नाश होने पर अंकुर उत्पन्न होता है और अंकुर के नाश हो जाने पर वृक्ष उत्पन्न होता है इनका कथन है कि श्रीज में वृक्ष नहीं है अपितु वृज एक पृथक नया पदार्थ उत्पन्न हुआ है। प्रशस्तवाद भाष्य में कहा है कि मिट्टी से घट प्रत्यक्ष से ही पृथक देख रहे हैं । यदि दोनों एक होते तो घड़े का काम मिट्टी ही दे सकती थी. ऐसी अवस्था में घट बनाने की सावश्यकता न थी . परन्तु सांख्य दर्शनने और घेवान्त ने इस असत् कार्यवादका तीन स्वएडन किया है । वर्तमान विज्ञान ने भी इस बाद को अस्वीकार किया है । उसने अपने प्रयोगों द्वारा सत्कार्यव द की पुष्टि की है । सांख्यकार का कथन है कि
कारण में कार्य विद्यमान रहता है. इस बात को सिद्ध करने के लिये ईश्वर कृष्ण निम्न प्रमाण देते हैंअसदकारणादुपादान ग्रहणासवैसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणाकारण भावाच सत्कार्यम्"(सा० का०६)