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अवस्था प्रतिक्षण बदलती रहती है, एक पहली अस्थाका नाश तथा दूसरीका उत्पाद ( प्रकाश ) होता रहता है। परन्तु जिसमें ग्रह उत्पाद और व्यय होता है वह द्रव्य स्थाई है। उसी द्रव्यकी परमाणु भी एक अवस्था (पर्याय) है क्योंकि यह भी एक अवस्था है अतः अवस्था होनेसे यह भी स्थाई नहीं है। इसी सिद्धान्तको म निशाने नकार किया है । शा. यह है कि मापने स्वयं यह सिद्ध कर दिया है कि परमाणुसे लेकर सूर्य आदि तककी सब वस्तुयें बनी हुई है, कोई विश्लेषण क्रियासे बनी है तो कोई संश्लेषण क्रियासे । श्राप के सिद्धान्तानुसार संश्लेषण क्रियासे जगम अर्थात् पृथिवी, चाँद सूरज आदि बने हैं. और विश्लेषण क्रियासे प्रलय हुई अर्थात् परमाणु बने तो जिस प्रकार जगतका कतो ईश्वर है उसी प्रकार प्रलय में परमारों का कता भी ईश्वर सिद्ध होगया । तथा जब यह नियम भी सिद्ध हो गया कि जो कार्य है वही कारण भी है इसी प्रकार जो कारण है वही कार्य भी है तो यही नियम ईश्वर पर भी निर्धारित होता है अत: ईश्वर जब जगतका कारण है तो वह कार्य भी अवश्य होगा. जब कार्य होगा तब उसके कर्ताको भी आवश्यकता होगी. आदि आदि । परन्तु जहां श्रास्तिकवादने दो प्रकार के कार्य माने हैं, एक विश्लेषण किया परक और दूसरा संश्लेषण क्रिया परक वहां नैयायिकों ने काय का लक्षण मावयवत्व ही किया है। यथा-कार्यस्वमपि सिद्धं चेन आमादेः सावयवत्वतः" ( सर्व सिद्धान्त मंग्रह) अर्थात पृथिवी आदिका सावयवत्व होनेसे कार्य त्व सिद्ध है। उनका कथन है कि परमाणा और प्राकाशके बीच में जितने श्रवान्तर परिणाम वाले द्रव्य है वे सब कार्य हैं। क्योंकि वे सब कार्य है ! उनका मध्यम परिमाणत्व होना उनको सावयव सिद्ध करता है और जो सावयव है वह कार्य है।" अवान्तर महत्वेन वा कार्यत्वानुमानस्य सुकरत्वान्'" सारांश यह कि