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निमित्त कारण के लिये इच्छा-शक्ति की आवश्यकता, यह दोनों शातें मनुष्यके मस्तिष्क में प्रारम्भ से इस प्रकार जमी हुई हैं कि इनसे मुक्ति पाना दुस्तर ही नहीं किन्तु असम्भव है। आज कल जब दर्शन-शास्त्रका आधार मानवी ज्ञानके नियमों (Theory of Kowledge ) पर रखा जाना है और इस बात पर अधिक बल दिया जाता है कि तत्वज्ञानकी प्राप्ति के लिये ज्ञानतत्वकी प्राप्ति प्रायश्यक है, उस समय हम उन नियमों को सर्वथा उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देख सकते जो मनुष्य के मस्तिष्क पर प्रत्येक युग और प्रत्येक देश में शासन करते रहे हैं । वस्तुतः प्रत्येक क्रिया के साथ किसी इच्छा शक्ति का संबंध जोड़ना मनुष्य के लिये इतना स्वाभाविक हैकि जहां उसकी इच्छा शक्तिका प्रकट रूप दिखाई नहीं देता वहां वह कोई न कोई कल्पित रूप मानने लगता है। जैसे जब वह किसी ग से मामाची देखता है और श्राग जलाने वाले को नहीं देखता तो कल्पना कर लेता है कि एक अदृष्ट देवी या देवता है जो इस अग्निको निकाल रही है।" आदि
समीक्षा प्रयोजन-न्याय दर्शनकार लिखते हैं कि
यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनम् । अर्थात् जिस उद्देश्य को लेकर किसी कार्य में प्रवृत्ति होती हैं, उसे प्रयोजन कहते हैं । अथवा शरल शब्दों में यह कह सकते हैं किइच्छा पूर्वक क्रिया का जो कारण है उसे प्रयोजन कहते हैं। क्यों कि प्रयोजनमनुग्लिश्य मन्दोऽपिन प्रवर्तते" बिना प्रयोजन के मूर्ख भी किसी कार्यको नहीं करता यह अटल सिद्धान्त है ।सारांश यह है कि निमित्त कारणमें निम्न मुख्य बातें होनी ही चाहिये । . (१) निमित्त कारण के लिये सबसे मुख्य प्रयोजन है।