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है आत्मा प्रत्यक्षमें हो विकारी है, विकारी होने के कारण ही यह मुक्ति की इच्छा करता है । शेष रहा आप का कल्पित ईश्वर उसको तो आपने ही जगतका कर्त्ता बना कर विकारी अना दिया। क्यों कि यह नियम है कि विकारी ही कर्म करने में प्रवृत्त होता है। अतः यह भी लक्षण ठीक नहीं है । सावयव के पूर्वोक्त चार ही अर्थ हो सकते हैं। उन चारों से आपके स्वार्थ सिद्धी नहीं हो सकती । अतः जगत कार्य नही है । जब आप इसको कार्य ही सिद्ध नहीं कर सकते तो इसके कर्ता का तो प्रश्न हो नहीं उत्पन्न होता । यदि "तुष्यन्तु दुर्जनाः " जय इस न्याय से जगत को आर्य स्टीकर की कर दिया तो भी इस कार्य सम्बन्ध का कर्ता ईश्वर सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि कारण और कार्य में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध का पाया जाना आवश्यक है ।
अन्यत्र व्यतिरेक
प्रो० हरिमोहन झा ( श्री० एन० कालेज पटना ) ने भारतीय दर्शन परिचय के वैशेषिक दर्शन में लिखा है कि- 'कारण कार्य अतिरेक सम्बन्ध रहता है। अर्थात् जहां कारण रहेगा वहां कार्य अवश्य होगा । जहां कारण न रहेगा वहां कार्य भी होगा 1
"कारणभावात् कार्य भावः " " कारणाभावात् कार्याभावः" वैशेषिक दर्शन पृ० १२८
अभिप्राय यह है कि कारण और कार्य का सम्बन्ध अन्य और व्यतिरेक से ही जाना जा सकता है। दूसरे शब्दों हम यह भी कह सकते हैं कि कारण और कार्य के सम्बन्ध की व्याप्ति के लिये सपक्ष और विपक्ष होना भी आवश्यक है । अतः हम संक्षेप