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हां दार्शनिकों का एक मत है जो सृष्टि के कार्यत्व पर किसी अंश में आक्षेप करा : यह है निवासी "अतात्विको अन्यथा भावः विवर्त इति उदीरितिः ॥"
जो वस्तु न हो और मालूम पड़े जसका नाम वियत्त है जैसे सांप नहीं है, और मालूम पड़ता है। या जल नहीं है और प्रतीत होता है। कुछ दार्शनिकों का मत है कि संसार वस्तुतः एक भ्रमात्मक कल्पित वस्तु है, या यों कहना चाहिये कि कल्पना मात्र है। स्वप्न में मनुष्य को हाथी घोड़े वृक्ष आदि सभी दिखाई देते हैं । अांख खुलने पर कुछ नहीं रहता। इसी प्रकार इस संसार को भी स्वप्न के समान देख रहे है । जब हमारी ज्ञान की प्रांख खुलती है तो यह स्वप्न हमारी आंखसे लुप्त होजाता है। इस मतके अनुयायियों की दृष्टि में संसार कोई वस्तु नहीं फिर इस को कार्य कैसे माना जाय यहां स्थायी और अस्थायी का शश्न ही नहीं। इनका तो केवल यह कहना है कि जिसको हम व्यवहारिक बोल चाल में 'संसार" कहते हैं यह तात्विक दृष्टि से स्वप्न मात्र है। वस्तुतः संसार की यह भिन्न भिन्न वस्तुएं जिनकी भिन्नता ही एक विचित्रता उत्पन्न कर रही है, स्वप्न से अधिक और कुछ नहीं है, मूल तत्व एक है । जिसको ब्रह्म कहते हैं।
हम यहां स्वमवाद" या "एक ब्रह्मवाद" पर कुछ नहीं कहना चाहते। यह ठीक हो या न हो। परन्तु जो लोग ससार को स्वप्न मात्र मानते हैं उनको यह तो अवश्य ही मानना पड़ेगा।
निमित्त कारण श्रागे श्राप लिखते हैं कि
ऊपर हम वैशेषिकों ने जो ईश्वरके पाठ गुण बताये हैं. उनका कथन कर आये हैं । नैयायिकों ने भी कहा है कि