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( ७६५ ) सोना होने पर सोना कार्य और जेवर कारण होता है । वास्तविक पिटे देखा जाश को हादी र नई ना सोने और जेवरमें कुछ भी अन्तर नहीं है। जेवरमें सोना मौजूद है तथा वफ में पानी विद्यमान है। यहां में' शब्दका प्रयोग भी उपचार मात्र है। निश्चय द्रष्टिसे पानी और धर्फ आदि में भेद नहीं है। धर्फ पानी की ही पर्याय अवस्था) विशेष है। इसी प्रकार कार्य और कारण भी पृथक पृथक नहीं है अपितु पूर्व अवस्थाका नाम कारण है और अन्तर अवस्थाको कार्य कहा जाता है। आपने स्वयं ही यहां पर दो प्रकार के कार्य माने हैं। एक संश्लेषणात्मक दूसरा विश्लेषणात्मक. श्राप के सुन्दर और तायिक शब्द है कि"वस्तुस: संसारकी सभी वस्तुयें संश्लेषण और विश्लेषण नामक दो क्रियाओं द्वारा बनती है। हम इन्हीं शब्दोको और सरल भाषा में कहे तो संश्लेषणका नाम "संघात और विश्लेषण का नाम भेद कह सकते हैं। जैनदर्शनमें भी लिखा है कि "मंदादरमुः। भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः'(तत्त्रार्थ सूत्र)अर्थात भेद (विश्लेषण)से अणुरूप कार्य सम्पादन होता है तथा स्थूल कार्य संघात (संश्लेषण) से या भेद और संघातसे होता है। अतः आपके कथनानुसार ही परमाणु भी कार्य सिद्ध हो गये। क्योंकि अपने स्वयं लिखा है कि सब वस्तुगें इन दो ही क्रिया से बनती हैं। अत: अापका यह लिखना कि संसार में एक स्थाई तत्व है श्रीर एक अस्थाई यह गलत सिद्ध हो गया। क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जगत में कोई भी पक्षर्थ स्थाई नहीं है अपितु प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण परिबर्तन शील है। यही कारण है कि जैन दर्शन ने 'स' का लक्षण ही जत्पाद व्ययनोव्ययुक्तं सत्" किया है। अर्थात् सत् वह है जिसमें उत्पाद और व्यय हो । अर्थात् प्रत्येक पदार्थ पर्यायरूपसे अस्थिर है और द्रव्यरूप से स्थिर है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि