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(६११ ) विषय बना ही है लि में भी शादि रानडोंकर वर्तमान कलि आदिके अर्थों में कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ है। इसलिय सर्तमान युगोंकी कल्पना नितान्त नवीन तथा स्वकपोल कल्पित है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है । *
ब्राह्मण ग्रन्थ और यग
प्राण प्रन्यों में भी कलि आदि शब्दोंको देखते हैं. अतः वहाँ इनका क्या अर्थ है, इस पर विचार करना भी आवश्यक है।
कनिः शयानी भवति सजिहानस्तु वापरः। उत्तिष्ट स्रोता भवति कृतं सम्पयत प्रान ॥४॥
ऐतरेय ब्राह्मण ७१५ यहां एक रोहित नामक राजाको कोई ऋषि उपदेशदेता है कि"भामा श्रान्ताय श्रीरस्ति इति रोहित शुभुमः ।"
अर्थात्-हे रोहित हमने ऐसा सुना है कि पानसीके लिये लक्ष्मी नहीं है। आगे कहा है कि आलस्यमें पड़े रहना (सोना) कलि है और उठना अर्थात् परिश्रमका विचार करना द्वापर है, एवं उठ बैठना उस विचारके अनुसार कार्य करनेको उद्यत होना अथवा नियम अादि बनाना त्रेतायुग है और जब उसके अनुकूल
-- - जैन ग्रन्थों में भी कलि' आदि शब्दों का प्रयोग-जाप के पास के लिये ही श्राया है।