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( ६४६ ) इसी प्रकार अन्य सब पापों के और मलाइयों के भी चिन्ह होते हैं। जिनके हाथों में उपरोक्त चिन्ह होते हैं ये चोरी आदि के लिये विवश से होकर चोरी करते हैं। हमारा अपना अनुभव है. कि हमने अनेक व्यक्तियों के हाथों में उपरोक्त चिन्ह देखकर उनको बिना संकोच के चोर कह दिया और उन्होंने इस दोष को स्वीकार किया । उनमें से अनेकों ने यह भी स्वीकार किया कि हम इसको हर तरह छोड़ना चाहते हैं परन्तु फिर भी आदत यश कर अठते हैं। यही अवस्था अन्य पापों की है। महाभारत में दुर्योधन ने ठीक ही कहा है--
जानामि धर्म न च मे प्रवति, जानाम्य धर्म न च में निवृत्तिः फेनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथानियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ ___अर्थात्--मैं धर्म को जानता हूँ परन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है, तथा अधर्म और उसके फल को भी जानता हूँ परन्तु विवश उसमें ही मेरी प्रवृन्ति है । उससे निवृत्ति नहीं है, प्रतीत होता है कि मेरे हृदयमै कोई ऐसा देव ( संस्कार ) विराजमान है जो मुझे जिधर लेजाना चाहता है। लेजाता है। और मैं भी मन्त्रविमुग्ध सा हो कर उसी के अनुकूल आचरण करता हूं। अत: सिद्ध है कि यह जीव कर्म करने में स्वतन्त्र नहीं है अपितु जैसा इसका स्वभाव है और जैसी इसके सूक्ष्म व स्थूल आदि शरीरोंकी रचना है उसी के अनुकूल यह कार्य करता है। जब यह स्वतन्त्र ही नहीं है तो परमेश्वर इसको फल किस कर्मका देता है। ईश्वरने स्वयं तो इस गरीबका चोरी आदि करनेका स्वभाव बना दिया तथा ऐसे ही कुल में भी भेज दिया जहां इसका बचपन से ही चोरी आदि की शिक्षा आदिप्राप्त होती रही है, जब सब बात ईश्वरने की सो इसके कर्मका उत्तरदायित्व उसी ईश्वरपर है न कि हम वेचारे जीव पर।