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घटनाओं को हम अपने प्रयोजन से मिलाते हैं जो मिल जाती हैं उसको अर्थिक कहते हैं और जो नहीं मिलती जसको अर्थ निरर्थका वस्तुतः यही हमारी भूल है । यह जानना हमारे लिये कठिन है कि प्रयोजन क्या है । परन्तु संसार की गति ही बताती है कि प्रयोजन है अवश्य ।" आदि आदि
समीक्षा-वर्तमान समय में दार्शनिकोंके दो मत हैं. एक प्रयोनयादी तथा दूसरा यन्त्र बादी यन्त्रवादी दल का कथन कि इस जगत में प्रयोजन नाम की कोई वस्तु नहीं है। जितनी प्रयोजन बनाये जाते हैं के पब अपनी २ बुद्धि अथवा निज निज स्वार्थ से कल्पित किये गये हैं, परन्तु यह किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता कि अमुक पदार्थ अमुक प्रयोजन के लिये बनाया गया है। जैसे श्रम स्वभावत: 'म चौर गाली व्यन सीन है, इनसे पृथक पृथक प्राणियोंके अनेक प्रयोजन सिद्ध होते हैं। परन्तु यह नहीं कह सकते कि अमि अमुक प्रयोजन के लिये गरम है और पानी किसी विशेष प्रयोजनके लिये ठण्डा है। वे तो नियोजन स्वभावतः ही ऐसे हैं। यदि इसपर विचार न करके श्राप ही की बात मानली जाय तो भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रयोजन किसका। ईश्वरका अथवा जीवों का । यदि ईश्वरका प्रयोजन है तब तो वह ईश्वरत्वसे गिरकर एक साधारण संसारी जीव बन गया, क्योंकि प्रयोजन वाला तो जीव हीहै, यदि ईश्वरको भी प्रयोजन घाला माने तोजीव
और ईश्वर में कुछ भी भेद न रहा । यदि जीवों का प्रयोजन माना जाये तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जीवों के प्रयोजनको सिद्ध करने के लिये ईश्वर क्यों प्रयत्न करता है। और वह प्रयोजन (चाहे स्वयं ईश्वर का हो अथवा जीवों का ) अनादि काल से अध तक क्यों नहीं पूरा हुअा ? तथा भविष्य में यह प्रयोजन सिद्ध हो जायेगा इसका क्या सबूत है । यदि कहो कि ईश्वरको ऐसा विश्वास