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जिस प्रकार एक ही स्त्री अपने पतिको सुखका कारण तथा अपनी सष्ट स्त्रियोंको दुःखका कारण और किसी तीसरेके लिये मोहका कारण भी हो सकती है, इसी प्रकार तीनों गुणोंकी यह समष्टि प्रकृति भी अकेली होकर भिन्न भिन्न कार्योंका संचालन कर रही है। रसायनिक वैज्ञानिकों के अनुसार परमाणुओं के भीतर रसाय fre प्रीति और रसायनिक अप्रीति दोनों धर्म हैं. परन्तु कार्यके समय उनमें विरोधकी प्रतीति नहीं होती । जहां रसायनिक प्रीति का प्रयोजन होता है वहां यही कार्य देती है. रसायनिक अप्रीति उसके कार्य में किसी प्रकार की बाधा नहीं डालती । इसी प्रकार रसायनिक प्रीति के कार्य में रसायनिक प्रीति प्रतिवन्धक नहीं होती रसायनिक विज्ञानके इसी नियात्राओं की परस्पर विरोधी गुणेोकी समष्टि रूप प्रकृति भी संसार संचा
नमें सर्वथा समर्थ समझी जा सकती है। गुणबादी सांख्याचायकी कलम से यह उपपादन बड़ा सुन्दर हुआ है, इसमें किसी आक्षेपका अवकाश नहीं है।" यह है दार्शनिक तथा वैज्ञानिक जगत रचनाका संक्षेपसे वर्णन। इसमें ईश्वर के लिये कहीं भी अवकाश नहीं है। प्रकृति अपना कार्यं स्वयं करने में पूरी तरह समर्थ है। यहां प्रशस्तवाद, भाष्त्रका ईश्वर भी एक अजीव प्रकार का ईश्वर है। वह स्वयं सृष्टि रचनाके में नहीं पड़ता श्रपितु जब बेकार बैठे २ वह घबरा जाता है तब उनके मन जगत रचनाकी इच्छा उत्पन्न होती हैं । अतः वह उसके लिये ब्रह्माको उत्पन्न करके उसको जगत रचना आदिका सारा भार दे देते हैं I पुनः वह ब्रह्मा इस विश्वकी रचना करता है और ईश्वर आरामसे पूर्ववत् सो जाता है। इस ब्रह्मा की आयु मौ वर्षकी होती है.. यह एक सौ वर्ष तक जगत रचना करता रहता है। घुनः जत्र इसकी आयु शेष होने को होती है तो ईश्वर भी जाग जाता है और
'अतः