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परमेश्वर की करनी में ऐसा करता युक्त व्यवहार न होना चाहिये कि एक बार खेल फैला कर उसे बिगाड़ डालें
स्वभाव
यह संसार ईश्वरने क्यों रचा इसका उत्तर पृथक २ दिया जाता है। कुछ कहते हैं कि उसका यह खेल मात्र है, कुछ कहते हैं कि जीवों में कमका फल देनेके लिये विश्व रचता है। इन सब का समाधान ऊपर किया गया है। कर्मों के फलका उत्तर तो लोक वार्तिककारने बहुत ही वित्ता पूर्ण दिया है. जिसका कथन हम पहले प्रकरणमें कर चुके हैं। तथा करुणा और उसी की यह लीला है इसका भी उत्तर आ चुका है। परन्तु अनेक विद्वानोंका यह मत है कि जगतकी रचना आदि करना ईश्वर का स्वभाव है । अतः स्वभाव के लिये क्यों का प्रश्न ही नहीं होता । जिस प्रकार अभि गरम हैं जल शीतल है. उनके लिये यह प्रश्न उत्पन्न नहीं होता कि श्रम गरम क्यों है ? पानी ठंडा क्यों है ? इसी प्रकार ईश्वर के विषय में भी जगत रचना क्यों की यह प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसा कहने वाले इस समय बातका विचार नहीं करते कि हम सिद्ध तो यह कर रहे थे कि ईश्वर सृष्टिकर्त्ता है और युक्ति ऐसी दे रहे हैं जिस से हमारे पक्ष का ही घात होता है। क्योंकि स्वभाव को कार्य नहीं कहा जाता । न तो अभि को गरमी कर्त्ता कहा जाता । और न जल को शीत का। वास्तव में अभि और गरमी दो पृथक र पदार्थ नहीं है। जिससे कि गरमीका कर्त्ता कहा जा सके। इसी प्रकार जल का स्वभाव नीचे जाने का है. तथा अग्नि का स्वभाव उर्ध्व गमन है, इस लिये पानी नीचे को जाता है तो उसको इसका कर्त्ता नहीं कहा जा सकता। और न
श्रम को ऊपर जाने का कर्त्ता कहा जा सकता है। अतः उस युक्ति से तो कर्त्ता न रहा। क्योंकि इन्छापूर्वक क्रियावान्को कर्त्ता