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सुख दुख हैं ? यदि ऐसा है तो परमात्मा देता क्या है ? क्योंकि सुख दुख उसका गुण होने से जीव के पास सदा रहेगा. क्योंकि गुण गुणी से पृथक नहीं होता। इस प्रकार तक की कसौटी पर रगड़ने से सुख दुख की कोई हस्ती सिद्ध नहीं होती । है भी वास्तव में ही बात, जीव ने सुख दुख की अपनी अज्ञानता से कल्पना कर रक्खी हैं। रह गया कर्मों के संकर होने का भय । सो तो कर्मफल के न समझ ने के कारण हुआ है। हम इसका विवंचन विस्तार पूर्वक पहले कर चुके हैं। यदि सामी जी समझ लेते तो इस प्रकार का भय नहीं रहता। इसके अलावा न्यायाधीश चोरी आदि के समय वहाँ उपस्थित नहीं रहता. यदि वह वहाँ उपस्थित हो तो वह गवाह बन सकेगा, जज नहीं । क्योंकि जज के लिये यह आवश्यक है कि कोई पूर्व से निश्चित न करली हो ! परन्तु आपका ईश्वर तो सर्वव्यापक होने से चोरी आदि के समय उस पापी को देखता रहता है। अतः उसे न्यायाधीश बनने का अधिकार नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि जब परमात्मा वहाँ मौजूद है तो पापी को पाप करने से रोकता क्यों नहीं । ! यह कहां का न्याय है कि पाप करते समय तो ईश्वर भी मजेसें आकर देखता रहे और फिर उस बेचारे को दण्ड आदि देने का स्वाँग भरे ? यदि कहो कि ईश्वर उनके मन में शङ्का आदि उत्पन्न करके रोकने का प्रयत्न करता है । परन्तु वह फिर मां जबरदस्ती पाप करता है तो ऐसे निर्धन व्यक्ति को ईश्वर क्यों बनाया गया है, जिसके मना करनेपर एक जीव भी नहीं मानता। फिर वह मन में ही शङ्का आदि उत्पन्न करके क्यों रह गया, वह वो सम्पूर्ण शरीर में भी व्यापक था. उसने शरीर को क्यों न जकड़ कर के रखा ? यदि इसने ऐसा नहीं किया तो क्यों न इससे जबाब तलब किया जाये। फिर यह ईश्वर दुख देता भी क्यों है ? यदि कहो जीवों की उन्नति के लिये ? तो क्या इसने