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सिकी-यह तो स्पष्ट ही है कि आत्मा देवी और शरीर
मरणधर्म है। सुकरात--"जो कुछ मैंने कहा क्या उसका परिणाम
यही निकला, कि जीवात्मा देवी, नित्य, वोधगम्य, समान, अविनाशी और अजर है, जब कि शरीर विनाशी, जड़, बहुविध, परिवर्तन शील और छिन्न भिन्न होने वाला है ? सित्री ! क्या तुम इसके विरुद्ध और
कोई तक रखते हो ? सिबीने कहा नहीं 16 (८) फिर सिवी को उत्तर देते हुये सुकरात ने कहा कि जीवात्मा जो अदृश्य है जो अपने सदश शुङ निर्मल, अदृश्य लोक में पवित्र और शान मय ईश्वर के साथ रहने को जाता है जहां यदि भगवानकी इच्छा हुई तो मेरा आत्मा भी शीघ्र जायगा। क्या हम विश्वास करें कि जीवात्मा जो स्वभाव से ही ऐसा शुद्ध निर्मल और निराकार है, वह ह्वाके झोंकों में उड़ जायगा? और क्या शरीर से पृथक होते से ही छिन्न भिन्न हो आयगा । जैसा कि कहीं कहते हैं । ४
सुकरात ने यूनान के दर्शन का झुकाब बाहर (प्रकृति ) की ओर से हटाकर भीतर (आत्मा) की ओर कर दिया । वह सदैव अपने शिष्योंको शिक्षा दिया करता था कि "अपने को जानो" और यह कि "प्राचार परम धर्म है ।" प्राचार युक्त जीवन तप से प्राप्त होता है, तप इन्द्रिय संयम और दमको कहते हैं ।
( जैन तीर्थंकरों का भी ग्रही उपदेश था)
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P. 146 and 147 * Trail and Death of Socrates P. 148.