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( ७१४ ) सगुण मानना है तो काई भी निराकार और कोई निगुण मानता है। इसी प्रकार जगत को कोई अनादि मानता है तो कोई सादि मानता है। अर्थान जितने विद्वान है उतने ही मत हैं। इनकी विभिन्नता ही इस कल्पना को निराधार सिद्ध कर रही है।
विज्ञान और ईश्वर सन १९३३ में पानीपत में जैनियों के साथ ईश्वर सृष्टि की पर एक बड़े पैमाने पर लिखित शास्त्रार्थ हुआ था। उस समय आयसमाज की तरफ से मैंने शास्त्रार्थ में भाग लिया था. उम्म समय मैंने एक आर्य विद्वान की पुस्तक में कुछ वैज्ञानिक प्रमाण उपस्थित कर दिए उनका जो उत्तर आया तब उन प्रमाणां के अर्थ की जांच की गई तो मुझे अपना दुा एला । और न लेखकों के प्रति एक प्रकारकी अरुचिसी सुत्पन्न होगई । उसके उत्तर में जो कुछ लिखा गया सबसे प्रथम आपके सन्मुख में उसे ही उपस्थित करता हूँ । जैन समाज ने लिखा कि-आपने जो पहिला प्रमाण दिया है यही आप के मृति कनृत्ल बाद का पूर्णतया खएडन करता है।
"And this conclusion is that there is no such thing as any primal creation any more than there can be any such thing as final destruction"
अर्थात्-उनका मन्तव्य है कि जगत्की न कोई आदि सृष्टि है और नाही कोई इसका कोई अनिम प्रलय है, यानि जगत अनादि और अनन्त है।
इसे कहते हैं 'जादु वह है जो सर पर चढ़कर ले महाशयी , तुम्हारा क्या दोष तुम्हारा ईश्वर ही तुम्हारी कर्तावाद रूप भ्रान्ति का नाश कर रहा है।