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१-क्या ईश्वर जीवों को प्राज्ञा देता है कि तूने अमुक २ कर्म किए हैं इस लिए तू अमुक २ योनियों में जाकर अपने कर्मों का फल भोग और वह जीव उन की आज्ञा मान कर अपने आप कर्म फल भोगेने लगता है।
२-क्या ईश्वर ने सिपाही वगैरह का इन्तजाम कर रखा है जो जीवों को पकड़ २ कर ईश्वर के पास लाते हैं और ईश्वर उन दूतों द्वारा कर्मों का फल दिलवाता है जैसा कि अथर्ववेद काण्ड ४ में घर के बूतों पर है।
३-अथवा ईश्वर स्वयं जीवों को पकड़ २ कर अनेक शरीरों में ढकेलता रहता है और वहां सुख दुःख देता रहता है।
४-अथवा ईश्वर प्राकृतिक पदार्थों को आना देता है कि तुम अमुक २ जीवों को अमुक २ सुख दुःख वेना ।
५-च्या मानसिक सुख दुःख का देने वालाभी परमात्मा है? यदि हां तो क्या ईश्वर जीयों को चिन्ता, शोक, तृष्णा, लोभ, मोह आदि ( जिन से कि मानसिक दुःस्व होता है ) करने के लिए विवश करता है या जोब में इन गुणों को उत्पन्न कर देता है। यदि कहो ईश्वर मानसिक सुख दुःस्त्र का देने वाला नहीं तो मानसिक सुख दुःख देने वाला कौन है ।
६-शारीरिक दुःख ईश्वर किस प्रकार देता है क्या ईश्वर जीव को अधिक खाने के लिये व खराव खाने के लिये बाध्य करता है। यदि कहो जीव स्वतन्त्रतापूर्वक खाता है तो क्या ईश्वर रोग के कीड़ों को यहां लाकर रख देता है या वहीं बैठा बैठा बनाता रहता है। यदि वह अधिक न खाय तो क्या ईश्वर कीड़े बनाने से महरूम रह जायगा।
असल बना।
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