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( ६०६ ) व्यवहार की वस्तुएं रहती हैं। घर बनाने के लिये राजगीर घड़े के लिये कुम्हार. गहने बानाने के लिये सोनार, घड़ी के लिये घड़ा साज चाहिये । यह राजीगर ईट पत्थर मिट्टी सोला. पुलों से गृहादि का निर्माण करते हैं। कारीगर उपादन सामग्री को काम में लाता है। और निर्माण कार्य में लगनेमें कोई न कोई प्रयोजन होता है। वह प्रयोजन यदि हमको पहिले से भी न ज्ञात हो तो निर्मित वस्तु को देखने से समझ में आसकता है।
अब यदि गृहादिकी भांति जगत मी कर्तृक है तो उसकी उपादान सामग्री क्या थी और सृष्टि करने में ईश्वरका प्रयोजन क्या था । जगतमें जो कुछ भीहै वह या तो जड़ है या चेतन, अतः जो भी उपादान रहा होगा वह या तो दो प्रकारका रहा होगा या उभय श्रात्मक । दोनों ही अवस्थामात बद प्रश्न है के ५६ की उत्पत्तिसे पूर्व कहाँसे श्राया। यदि उसका कोई कर्चा नहीं था तो जगतके लिए ही काकी कल्पना क्यों की जाये। यदि कर्ता था तो वह ईश्वरसे भिन्न था या अभिन्न । यदि भिन्न था तो ईश्वर की कल्पना क्यों की जाये | क्या जो व्यक्ति जड़ चेतनको उत्पन्न कर सकता था वह उनको मिलाकर जगत नहीं बना सकता था ? जड़ चेतनके बनने पर तो बिना किसी ईश्वरको माने भी जगतका विस्तार समझमें श्रा सकता है। यदि उपादान की ईश्वरसे भिन्न था अर्थात् ईश्वरने ही जड़ चेतनकी सृष्टिकी तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपत्से सत्की उत्पत्ति हुई जो प्रत्यक्षके विरुद्ध होनेसे अनुमानसे भी बाधित है। यदि यह माना जाय कि ईश्वरने अपने सत् स्वरूपसे जड़ चेतनको उत्पन्न किया तो यह प्रश्न होगा कि उसने ऐसा क्यों किया ऐसा करने में प्रयोजन क्या था । यह नहीं कह सकते कि जीवोंकी भोगोपलब्धिके लिए ऐसा किया गया क्यों कि जीवोंको तो उसी ने बनाया । न उनको बनाता न उनके लिए