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यदि ये कल्पनाएं कुछ विचार पूर्वक की जाये तो कुछ फलप्रद हो सकती हैं पस्तु ऐसा न करके सर्वसाधारण को भ्रम में डालना ही इनका मुख्य उद्देश्य होता है। यही कारण है कि परिजत जी को इस पृष्ठ पहिले लिखी अपनी ही बात स्मरण न रह सकी । क्योंकि उसी आस्तिकवाद के पृष्ट ३८८ पर आप लिम्यते हैं कि स्थूल शरीर से किये हुये कर्म का स्थूल शरीर में अन्त नहीं हो जाता । मैंने यदि आज एक मनुष्य को गाली दे दी सो यह स्थूला शरीर फर्म हुश्रा। मैंने समझा कि यह कर्म यहाँ समाप्त हो गया, परन्तु नाही, यहाँ तो केवल प्रारम्भ हुआ है अन्त तब होगा जब कारण शरीर में इसका मार रूप बैठ जावेगा-बहुत से आदमी संस्कार को ही कर्मा का फल कहते हैं। गौण रूप से यह माना जा सकता है परन्तु वास्तविक रूप से यह ठीक नहीं।
यहाँ पर आपने संस्कारोंको कर्मोका अन्त माना है और उन संस्कारों को अपने (गौण रूपसे ) कर्मोंका फलभी स्वीकार किया है फिर नहीं मालूम आपने पृष्ठ ३११ पर यह कैसे लिख दिया कि "जैनी लोगों को भ्रम कर्म की मीमांसा न समझने के कारण होता है । वह संस्कारको हो फल समझ बैठे हैं। वस्तुतः यह कर्म का अन्त है-फल नहीं।" संस्कारोंको गौण रूप के कौका फल तो आपने स्वयं ही पृष्ट ३८८ में स्वीकार किया है जैसा कि हम ऊपर दिखा चुके हैं। मालूम नहीं यह आपको किसने बहका दिया है कि जैनी लोग संस्कार का ही कर्म का फल मानते हैं । जैन धर्म के विषयमें इस तरह की मनघाईत बातें लिखना ही शायद आप लोगोंने अपना ध्येय बना लिया है या जनतामें भ्रम फैलाना हो वैदिक धर्म का शाबद्ध आदर्श हो। जैन धर्मके विषयमें आप को एक गुरु बता देते हैं कि जब श्राप जैन धर्म के विषय में कुछ लिखे या विचार करे तब आप ही के स्थान में भी' का प्रयोग